मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

क्यों होता है ऐसा...? २

एक और कहावत का मतलब मुझे किसी उम्रतक समझमे नही आता था...." चोरकी दाढी मे तिनका!" सोचती थी, चोरकी हमेशा दाढी होती होगी? जिसकी नही वो चोरी नही करता....तब तो चोरको पहचान लेना आसान....दाढ़ी वाले लोगोंसे बचके रहना चाहिए....कैसा बचपना था....! पर फिरभी एक बात नही समझ आती,कि, चोर अपनी दाढी मे तिनका क्यों लगाता होगा? ......उसे पहचान लेना और आसान....!

खैर! ये हुई बचपनकी बातें...मुहावरे हर भाषामे तकरीबन एक जैसे होते हैं...वजह: इंसानी ज़हनियत दुनियामे कहीँ जाओ, एक जैसीही होती है...!

मै झूट के बारेमे बता रही थी। उसी बातपरसे एक और बचपनका क़िस्सा बताती हूँ...इस क़िस्सेको बरसों बाद मैंने अपनी दादी को बताया तो वो एक ओर शर्मा, शर्मा के लाल हुई, दूसरी ओर हँसतीं गयीं....इतना कि आँखों से पानी बहने लगा...

मेरी उम्र कुछ रही होगी ४ सालकी। मेरा नैहर गांवमे था/है । बिजली तो होती नही। गर्मियों मे मुझे अपनी दादी या अपनी माँ के पलंग के नीचे लेटना बड़ा अच्छा लगता। मै पहले फर्शको गीले कपडेसे पोंछ लेती और फ़िर उसपे लेट जाती....साथ कभी चित्रोंकी किताब होती या स्लेट । स्लेट पे पेंसिलसे चित्र बनाती मिटाती रहती।

ऐसीही एक दोपहर याद है.....मै दादीके पलंग के नीचे दुबकी हुई थी....कुछ देर बाद माँ और दादी पलंग पे बैठ बतियाने लगी....उसमेसे कुछ अल्फाज़ मेरे कानपे पड़े...बातें हो रही थी किसी अनब्याही लड़कीके बारेमे....उसे शादीसे पहले बच्चा होनेवाला था...उन दोनों की बातों परसे मुझे ये एहसास तो हुआ,कि, ऐसा होना ठीक नही। खैर!

मेरी माँ, खेतपरकी कई औरतोंकी ज़चगी के लिए दौड़ पड़ती। हमारे घरसे ज़रा हटके दादा ने खेतपे काम करनेवालोंके लिए मकान बनवा रखे थे। वहाँसे कोई महिला माँ को बुलाने आती और माँ तुंरत पानी खौलातीं, एक चाकू, एक क़ैचीभी उबालके साथ रख लेती...साथमे २/४ साफ़ सुथरे कपडेके टुकड़े होते....फिर कुछ देरमे पता चलता..."उस औरत" को या तो लड़का हुआ या लडकी....

एक दिन मै अपने बिस्तरपे ऐसेही लोट मटोल कर रही थी...माँ मेरी अलमारीमे इस्त्री किए हुए कपड़े लगा रही थीं....
मुझे उस दोपेहेरवाली बात याद आ गयी..और मै पूछ बैठी," शादीके पहले बच्चा कैसे होता होता है?"
माँ की और देखा तो वो काफ़ी हैरान लगीं...मुझे लगा, शायद इन्हें नही पता होगा...ऐसा होना ठीक नही, ये तो उन दोनोकी बातों परसे मै जानही गयी थी...
मैंने सोचा, क्यों न माँ का काम आसन कर दिया जाय..मै बोली," कुछ बुरी बात करतें हैं तो ऐसा होता है?"
" हाँ, हाँ...ठीक कहा तुमने..."माँ ने झटसे कहा और उनका चेहरा कुछ आश्वस्त हुआ।
अब मेरे मनमे आया, ऐसी कौनसी बुरी बात होगी जो बच्चा पैदा हो जाता है.....?
फिर एकबार उनसे मुखातिब हो गयी," अम्मा...कौनसी बुरी बात?"

अब फ़िर एकबार वो कपड़े रखते,रखते रुक गयीं...मेरी तरफ़ बड़े गौरसे देखा....फ़िर एक बार मुझे लगा, शायद येभी इन्हें ना पता हो...मेरे लिए झूट बोलना सबसे अधिक बुरा कहलाया जाता था...
तो मैंने कहा," क्या झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है"?
"हाँ...झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है...अब ज़रा बकबक बंद करो..मुझे अपना काम करने दो.."माँ बोलीं...

वैसे मेरी समझमे नही आया कि , वो सिर्फ़ कपड़े रख रही थीं, कोई पढ़ाई तो कर नही रही थी...तो मेरी बातसे उनका कौनसा काम रुक रहा था? खैर, मै वहाँसे उठ कहीँ और मटरगश्ती करने चली गयी।

इस घटनाके कुछ ही दिनों बादकी बात है...रातमे अपने बिस्तरमे माँ मुझे सुला रहीं थीं....और मेरे पेटमे दर्द होने लगा...हाँ! एक और बात मैं सुना करती...... जब कोई महिला, बस्तीपरसे किसीके ज़जगीकी खबर लाती...वो हमेशा कहती,"...फलाँ, फलाँ के पेटमे दर्द होने लगा है..."
और उसके बाद माँ कुछ दौड़भाग करतीं...और बच्चा दुनियामे हाज़िर !

अब जब मेरा पेट दुखने लगा तो मै परेशाँ हो उठी...मैंने बोला हुआ एक झूट मुझे याद आया...एक दिन पहले मैंने और खेतपरकी एक लड़कीने इमली खाई थी। माँ जब खाना खानेको कहने लगीं, तो दांत खट्टे होनेके कारण मै चबा नही पा रही थी...
माँ ने पूछा," क्यों ,इमली खाई थी ना?"
मैंने पता नही क्यों झूट बोल दिया," नही...नही खाई थी..."
"सच कह रही है? नही खाई? तो फ़िर चबानेमे मुश्किल क्यों हो रही है?" माँ का एक और सवाल...
"भूक नही है...मुझे खाना नही खाना...", मैंने कहना शुरू किया....

इतनेमे दादा वहाँ पोहोंचे...उन्हें लगा शायद माँ ज़बरदस्ती कर रही हैं..उन्होंने टोक दिया," ज़बरदस्ती मत करो...भूक ना हो तो मत खिलाओ..वरना उसका पेट गड़बड़ हो जायेगा"....मै बच गयी।
वैसे मेरे दादा बेहद शिस्त प्रीय व्यक्ती थे। खाना पसंद नही इसलिए नही खाना, ये बात कभी नही चलती..जो बना है वोही खाना होता...लेकिन गर भूक नही है,तो ज़बरदस्ती नही...येभी नियम था...

अब वो सारी बातें मेरे सामने घूम गयीं...मैंने झूट बोला था...और अब मेरा पेटभी दुःख रहा था...मुझे अब बच्चा होगा...मेरी पोल खुल जायेगी...मैंने इमली खाके झूट बोला, ये सारी दुनियाको पता चलेगा....अब मै क्या करुँ?
कुछ देर मुझे थपक, अम्मा, वहाँसे उठ गयीं...

मै धीरेसे उठी और पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चा हुआ तो मै इसे पानीसे बहा दूँगी...किसको पता नही चलेगा...
लेकिन दर्द ज्यूँ के त्यूँ....एक ४ सालका बच्चा कितनी देर बैठ सकता है....मै फ़िर अपने बिस्तरमे आके लेट गयी....
कुछ देर बाद फ़िर वही किया...पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चे का नामोनिशान नहीं...

अबके जब बिस्तरमे लेटी तो अपने ऊपर रज़ाई ओढ़ ली...सोचा, गर बच्चा हो गया नीन्दमे, तो रज़ाई के भीतर किसीको दिखेगा नही...मै चुपचाप इसका फैसला कर दूँगी...लेकिन उस रात जितनी मैंने ईश्वरसे दुआएँ माँगी, शायद ज़िन्दगीमे कभी नही..
"बस इतनी बार मुझे माफ़ कर दे...फिर कभी झूट नही बोलूँगी....मै इस बच्चे का क्या करूँगी? सब लोग मुझपे कितना हँसेंगे? ".....जब, जब आँख खुलती, मै ऊपरवालेके आगे गुहार लगाती और रज़ाई टटोल लेती...

खैर, सुबह मैंने फ़िर एकबार रज़ायीमे हाथ डाला और टटोला...... कुछ नही था..पेट दर्द भी नही था...ऊपरवालेने मेरी सुन ली...
उसके बाद मैंने शायदही कभी झूट बोला...एकबार शायद...वोभी झूट नही था...शायद टालमटोल थी..लेकिन, उस कारण मेरे भाईको पिटते देखा, माँ के हाथों, तो मेरी निगाहें उठ नही पायीं और मैंने मान लिया कि, मैंने ठीकसे नही देखा...जोभी था...जल्दबाज़ी की..वो किस्सा कहूँगी तो बोहोत अधिक विषयांतर हो जाएगा.....

इतना सारा लिख गयी, उसकाभी कारण है...जब मुझे झूट कहनेके लिए ज़बरदस्ती की जाने लगी, तो मेरे मनमस्तिष्क पे उसका गहरा असर होने लगा...शायद मुझे उसवक्त नही समझमे आयी ये बात...बड़ी तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी थी...लेकिन, एक बोझ, एक डर का साया, मेरे अतराफ़ मँडराने लगा....
अपने नैहर आती,तो मुझे उनसे ये बात कहते हुए बेहद शर्म आती कि, मुझे अपने ससुरालमे झूट बोलना पड़ता है....
और येभी डर रहता कि , मुझे कई चीज़ों के बारेमे हिदायत देके भेजा गया है..." तुम ये ना कहना, तुम ऐसे ना बताना...कहीँ जाके तुम ऐसा कह दो"...हज़ारों बंदिशें...

असर ये कि, मै बेहद खामोश हो जाती...अपने आपको अपने कमरेमे बंद रखती...गुमसुम-सी...मेरे दादा भाँप लेते कि, कहीँ तो कुछ है...मुझसे पूछ बैठते,"क्यों बच्ची ,तू इतनी खामोश, अकेली-सी रहती है? कितनी घूमा फिरा करती थी....सायकल चलाया करती थी...किताबों मेसे पढ़के सुनाया करती....गाने बजते रहते...बल्कि, मै रेडियो बंद कर देता....फूल सजाती...बगीचेमे काम करती...शादी क्या हो गयी, तू तो एकदमसे तब्दील हो गयी...!"

उनके चेहरेपे साफ़ परेशानी झलकती... मै औरभी खिज जाती...ये सोच कि, मेरा अपनी उदासी छुपनेका प्रयास असफल हो रहा है....
उनपे बरस पड़ती," दादा, आप क्यों मेरे पीछे पड़ जाते हो? मुझे नीन्द्की कमी है, बस.... मै इसलिए सोती रहती हूँ...और वहाँ मुझे किताबे पढ़नेका मौक़ा नही मिलता, तो यहाँ पढ़ती हूँ..."

बेचारे, छोटा-सा मुँह ले हट जाते...आज जब वो चेहरा निगाहों के सामने आता है तो मेरी आँखों से सावन की झडी बहने लगती है....सबकुछ धुन्दला जाता है...

क्या से क्या हो गया....देखभी रही थी कि, क्या कर रही हूँ..अपनेआपको झूटका छोटी छोटी मात्रायों मे ज़हर दिए जा रही हूँ...जैसे कोलेरा आदीसे लड़नेके लिए उसीके जीवाणु कम मात्रामे दिए जाते हैं...
मेरे मस्तिश्क्मे ये ज़हर पैवस्त हो रहा था...कभी तो इसका दुष्परिणाम होगा...कहीँ तो होगा...क्योंकि इस बातको ना मेरा मन स्वीकार रहा था ना दिमाग़.....

मेरी सहेत पे इसका असर होने लगा था...जो मुझे तब नही नज़र आया....हज़ार दूसरे कारण मेरे आगे आते रहे, लेकिन आज जब मुड़ के देख रही हूँ, तो सबसे बड़ा कारण यही था....जीवन मूल्य इतने अधिक तेज़ीसे बदले जा रहे...और मै उनके साथ समझौता नही कर पा रही थी....

कभी मनमे आता, झूट बोलनेसे तो बेहतर है, कुछ बातें कहीही ना जाएँ....लेकिन उसके अपने परिणाम हुए....और ज़्यादा शक के घेरेमे मै आ जाती....ये दुविधा मेरे लिए एक मर्ज़ बनती चली गयी...

आज फिर एकबार अपनाही विश्लेषण करने निकल पड़ी हूँ...एक अकेले सफर पे...
जब शुरू किया लिखना तब शायद, इस विषय पे इतनी गंभीरतासे लिखनेका इरादा नही था...लेकिन विषयही मैंने गंभीर चुन लिया....!
अब देखना है मेरे पाठक चहेते, जो "दुविधा" से बँधे थे, वो इस मालिका से बँधते हैं या नही....इतनी लम्बी तो ये खिंचेगी नही...४६/४७ कड़ियाँ नही होंगी...यही कोई ५/७......
लिखनेका मकसद सिर्फ़ एक है....अपने आपका हेतुपुरसपर निरिक्षण और पाठकों से एक सच्चा संवाद...निष्कर्ष चाहे जो निकले...
क्रमशः

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

क्यों होता है ऐसा.?..१

हम क्यों कहते हैं," बद अच्छा बदनाम बुरा?" पहले नही समझ आती थी मुझे...बरसों नही समझी कि , इस कहावत का क्या मतलब होगा...सुनती रही बडोंके मुहसे...लेकिन इसका मतलब जान लेनेकी पता नही क्यों, कभी कोशिश नही की...और फिर खुदही जान गयी...जब एकबार मुझपे गुज़री...
वही कुछ वाक़यात बताने जा रही हूँ...

बचपनमे हमें सिखाया गया था, हर हालमे सत्य ही कहना...तो हम बच्चे हर हालमे सत्य ही बोलनेपे अमादा रहे...हाँ...ज़िंदगी जीते, जीते इतना सीखे कि , किसीकी आबरू या जान बचानी हो तो उस समय ज़रूरी नही कि, जो व्यक्ती वही करनेपे तुला हो, उसीके सामने किसीका "सत्य" उजागर किया जाय...
पहले मजबूरी तो जान ली जाय, अपनेआपको खुदा से बढ़के ना समझें...न्याय-अन्याय, सत्य-असत्यका फैसला उस विराट शक्तीपे छोड़ दें...जिसने असत्य कहा होगा, उसकी हालत तो देखें..कि उसपे क्या गुज़र रही होगी...गर वो किसी बोझ तले दबा है,तो पहले उसे तो प्यारसे हल्का करें..उसे तो आश्वस्त करें....ज़रूरी नही कि उसेही कट्घरेमे लेके और दर्द पोहोंचाया जाय...खुदका " सत्य वचनी सत्यवान" होनेका दावाही एहेम समझा जाय...

कोई बच्चा झूट बोलनेकी शिक्षा लेके जन्म तो नही लेता...इन्सानपे दो चीजोंका असर होता है..और ये मनोविज्ञानिकों का माना हुआ " सच" है...वो ये: १)अनुवंश( heredity) २) परिसर (environment).
बड़ा होते, होते बच्चा जाने अनजानेमे गौर करता है, कि किस चीज़मे अधिक फायदा है...वो एक स्पंजकी तरह अपने अतराफ़ मे होती बातें,अपने अन्दर सोखता रहता है.. उसकी माँ, बाप तथा अन्य व्यक्ती, कब क्या कहते हैं, करते हैं...इसीलिये तो कहते हैं, कि, बच्चों के सामने ज़बान सम्भालके बात करनी चाहिए....खैर...

जब ज़िन्दगीमे क़दम रखा तो देखा, सच बोलनेपे बड़ी डांट भी सुननी पड़ती है...अपनी खैर मानानी हो, तो बेहतर लगता है , थोड़ा-सा झूट बोल देना..जैसे किसीने पूछा ," दवाई लेली?"
अब मनमे ये जानती होती कि, मेरी सेहेतकी तो ,पूछनेवाले को परवाह नही, लेकिन सबके आगे दिखावा है...और मै येभी जानती थी, कि मै भूली नही, लेकिन एक पलकीभी मोहलत नही मिली कि खा लूँ...गर कहूँ,कि, मोहलत नही मिली, तो बेहद आफत...सुनना पडेगा," ऐसाभी क्या काम था...क्या सारा समय कामही करती रहती हो?"
गर कहती ," हाँ! आपहीने तो मुझे कहा था, कि पहले ये सब ख़त्म करना...फिर और कुछ...इस समय तक ये सब होनाही चाहिए..कोई बहाना नही.."तो औरभी बड़ी आफत...!
बेहतर के कह दूँ ," भूल गयी...अभी लेती हूँ..",क्योंकि, ऐसा कहके वाकई,सब काम रोकके, मै दवाई ले सकती थी..!

फोन आ जाय और कह दूँ," हाँ हैं, देती हूँ...",तो सुनूँ," किसने कहा था, घरपे हैं कहनेको? कह नही सकती थी, के नही हैं?"
अगली बार फोन बजा तो उठानेसे पहले पूछा,इशारेसे, कि, क्या जवाब देना चाहिए...इशारा हुआ, बाहर गए हुए हैं, कह दो।
मैंने फोनपे,कौन बोल रहा है ये जान लेने के बाद कह दिया," वो तो बाहर गए हैं....... ...."
वहाँसे पूछा गया," अरे...! कहाँ गया है? उसने तो मुझे अभी १० मिनिट मे मिलने बुलाया था...कबतक लौटेगा?"
अब मै बौखला गयी...मुडके देखा,तो, जिनसे पूछना चाहिए..वो नज़रके परे...मैंने कह दिया," जी..वो तो पता नही..."
"लेकिन गया कहाँ है? " उधर पूछा गया...
" शायद...शायद...अस्पताल....", कहते हुए मै पसीना, पसीना हो रही थी...क्योंकि बात करनेवाला व्यक्ती हमारा बेहद करीबी था...!
" अस्पताल? क्यों? क्या हुआ? सुबह तो कुछ कहा नही...! कौनसे अस्पताल?" उधरसे पूछा गया...
"नही, वैसे कुछ ख़ास नही..मतलब ज़रा गला ख़राब था..और...थोड़ा बुखारभी...तो.."अबतक मै तकरीबन हकलाने लगी थी...
" चलो ठीक है...जब लौटे तो कह देना मेरा फोन था...अबतो मै लेट हो जाऊँगा....मुझेभी आगे जाना है..वो तो उसने कहा था, 'मुझे साथ ले चलना' ....ऐसा कैसा किया उसने...एक फोन तो कर देता...मैंने अपनी दूसरी appointment मुलतवी कर दी थी..." उस व्यक्तीने मुझसे कहा और फोन नीचे रख दिया...

मैंने ,अन्दर आके फोनपे हुई बातचीतके बारेमे बताया.....और वो व्यक्ती मुझपे आग बरसाने लगा," तुम्हें किसने कहा था कि इस व्यक्तीको ऐसा कहना? तुम्हें अपनी अक़ल नही थी? उसके साथ जाना था, इसलिए तो मैंने सोचा कोई ऐरा गैरा होगा, उसे मै घरपे नही हूँ, ये कह दिया जाय..हद है तुम्हारे बेवक़ूफ़ीकी...जाओ..अभी फोन करो उसे और कहो,कि, मै आ गया हूँ.."
अब मुझे पहलेही ये बात बता दी गयी होती, कि फलाँ, फलाँ आदमी आनेवाला है..जिसके साथ इन्होने जाना है, तो मै आगाह तो हो गयी होती...मै अंतर्ज्ञानी तो नही थी/या हूँ!

मैंने उस व्यक्तीका फोन घुमाया....वहाँसे आवाज़ आयी," वो तो निकल चुका है.."
ये इत्तेला देनेवाले जनाब उस व्यक्तीके पिता थे...उनके आगे मै और तो कुछ कह नही सकती थी...मैंने फोन रख दिया...

जब, इस बारेमे मैंने इत्तेला दी तो मुझे सुनाया गया," ये सब तुम्हारी बेवाकूफीके कारन हुआ...पता नही, उसके बाऊजी सच कहते थे कि झूट...बड़े घाग हैं...मेरा सारा काम तुमने चौपट कर दिया..."

ऐसे वाकयातके बाद मै फोन उठानेसे डरने लगी...गर, घंटी बजने देती तो आफत...उठा लेती तो ,निगाहेँ मुझपे गडी पाती, कि क्या जवाब दे रही हूँ...
एकबार मैंने कहा," रुकिए, मै देखके बताती हूँ...."
उधरसे जवाब आया," क्या ये बात उसने तुम्हें कहनेके लिए कही है? दो कमरोंका घर है...फोन रखा है वहाँसे तो पूरे घरपे नज़र जाती है, और आप कह रही हैं,'देखके बताती हूँ...'...नही फुरसत उसे तो सीधा कह दे..अव्वल तो काम उसीका था..और बीबीसे कहलवा रहा है," देखके बताती हूँ' ऐसा कह दे...कह दो उसे कि, अब मै दो दिन बाहर हूँ...दो दिनके बाद जब तुम्हें वो 'दिख'जाय तो बता देना...मेरा फोन था", और उधरसे फोन पटक दिया गया...

जैसेही मै पीछे मुडी, जिसके लिए फोन था, वो रु-ब रु !!!
"किसका फोन था",मुझसे पूछा गया...
मैंने डरते,डरते बता दिया...
तो सुनने मिला," हद है...ठीक ही कह रहे थे वो..दो कमरोंका तो घर है...कैसे इतनी बेवकूफ हो?
अब यही बात पहले कई बार मुझसे कही गयी थी,कि, जब किसीको सच ना बताना हो तो, ऐसा कह दिया जाय...!

खैर, आगेभी ज़िन्दगीमे मुझे ये एहतियात हमेशा मिलती रही," अब मै ऐसे कहनेवाला/वाली हूँ...! तुम अपनी मत चला देना...कहीँ कह दो,'अरे कौन-सी शादीमे जाना है यहाँसे...मुझे तो नही बताया..?"

ऐसाभी मौक़ा आया जब ,कहीँ शादीमे जाना है,ये बात मैंने एक समारोहमे कह दी...
अगलेने पूछ लिया," अच्छा? किसकी? किस इलाकेमे है? थोड़ा-सा तो खाके जाओ..."
" वो..इलाक़ा तो ...नही पता...मै.."....उफ़! मुझेही क्यों पूछ लेते हैं सब...?
मै वहाँसे हट गयी...मेरे कानपे अल्फाज़ पड़े," ये लोग अपनी औक़ात भूल जाते हैं...आगे शादीमे जाना है...जानता हूँ...इस लड़कीकी नाक चढी रहती होगी.."

येभी सीख गयी कि, जब "सीधी उँगली से घी ना निकले तो तेढीसे निकालना पड़ता है.."...इस कहावत का मतलब भी मै बरसों नही जान पायी थी...

और एकबार, केवल एकबार कुछ ४/५ वर्ष पहले, हताशामे आके मैंने बिना सोचे समझे झूट बोल दिया तो...उफ़ !
उस एक झूटने मेरा पीछा कभी नही छोडा...शायद ता-उम्र नही छोडेगा....मेरा हर सत्य, उस "झूट" के निकशपे तलाशा जाता है...मैंने अपने बच्चों को कभी सच बोलनेसे रोका नही...लेकिन...बल्कि हमेशा सराहा....इसलिए, यही बात मेरे आड़े आ गयी...

अगली बार बताउंगी वो क्या था...क्या चाहा था, और हो क्या गया था...कारन यही था, कि, मै मंझी हुई "झूटी" नही थी...
ज़िंदगी मे इस एक बात के कारन कितनी अधिक तबाही मची....तबतक मै बदनाम नही थी..नाही बद....जबकि, ऐसा साबित करनेकी हर मुमकिन कोशिश की गयी थी....

क्रमशः

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम...?७

उस शाम पे आके अटकी हूँ...उसवक्त, जब मेरे कनोंपे वो ख़बर टकराई...मुझे समझ नही आ रहा था कि मै क्या प्रतिक्रिया करूँ...मेरी क्या प्रतिक्रया होनी चाहिए...??
सबसे पहले तो मैंने वंदन और निम्मीकेही नंबर घुमाए...क्या कमाल था कि दोनों " पोहोंचके बाहर" थे...!! ऐसाभी क्या इत्तेफाक़??उठाके कहाँ दे मारूँ इन उपकरणों को ...? ये नज़दीकियों के साधन, जब दूरियाँ पैदा कर दें, तो इनका क्या फायदा? किसे कहूँ, कि रुको...अभी इन साधनों द्वारा दी जा रही जानकारीपे विश्वास ना करो? जिनसे कहना चाह रही थी...जिनसे सत्य जानना चाह रही थी...उन्हींसे संपर्क नही हो रहा था...

मैंने निम्मीके सास -ससुरसे पहले संपर्क करना चाहिए??क्या उनके कानों तक तो ये ख़बर नही पोहोंच गयी? गर पोहोंच गयी हो तो मै क्या कहूँगी...? मेरे पास कहनेको क्या रहेगा....?
जब मुझेही उस खबरकी यथार्थता मालूम नही, तो मै क्या कह सकती हूँ? ये, कि आप अभी उस खबरपे विश्वास न रखें...?
और गर नही मिली वो ख़बर तो मेरी परेशानी, मेरी अधीरता वो भाँप नही जाएँगे? और गर निम्मी या वंदन, दोनोसे उनका संपर्क नही, तो क्या मुझसे नही पूछ बैठेंगे...कि मैं कुछ जानती हूँ, उन दोनोंके बारेमे ?
सहजही पूछा जानेवाला प्रश्न होगा वो...तब मै क्या कहूँगी? के कुछ नही जानती? जब बादमे पता चलेगा कि, मै जानती थी...तो फिर क्या जवाब दूँगी? सिर्फ़ ये कि, उस खबरकी सच्चाई नही जानती थी?

मैंने मेरे पतीसे सबसे पहले संपर्क करना चाहिए...कैसी अजीब बात है...मै जब, जब बेहद शशोपंज मे रही हूँ, हर वक्त अकेली रही हूँ...इसमे कभी कोई मेरे साथ नही होता...क्या ये मेहेज़ एक इत्तेफाक होता है या ईश्वर हरबार मेरी परिक्षा लेना चाहता है?

मैंने इन्हें फोन लगाना शुरू कर दिया...." आप जिस व्यक्तीसे संपर्क करना चाह रहे हैं, वो इस वक्त पहुँचके बाहर है.."...उफ़ ! बार, बार यही एक वाक्य मेरे कानोंसे टकराता रहा...निम्मी और वंदन से तो संपर्क पहलेही नही था...

क्या ख़बर थी वो? ख़बर थी...किसी वंदन के सहयोगी द्वारा किया गया वो फोन था...." वंदन की प्रथम पत्नी गर्भवती है...वंदन केही बच्चे की माँ बनने वाली है...!!"
ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसी बात वंदन करही नही सकता...लेकिन वो फोन क्यों नही उठा रहा है? वो तो अगली सुबह निम्मीके पास पोहोंचने वाला था....तो निम्मीसे संपर्क क्यों नही कर रहा??
और निम्मी ....? वो मेराभी फोन क्यों नही उठा रही ?? मेरा फोन बजबजके बंद हो रहा था...कितनी बार कोशिश कर चुकी थी....क्या उसे मेरे पहले ये भयंकर ख़बर मिल गयी?
और येभी कि, वंदन अब उसके पास नही लौट सकता? उसने येभी मान लिया कि, निम्मी या निम्मीके परिवारवाले उसे माफ़ नही करेंगे? के गर उसे अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभानी होगी तो उसे, उसकी प्रथम पत्नीके पासही लौटना होगा...? तो क्या निम्मीके प्रती उसकी कोई ज़िम्मेदारी नही? उसकी प्रथम पत्नी कैसे उसपे ये ज़िम्मेदारी डाल सकती है, जब वो कोई छोटी बच्ची नही...? अपने पतीसे कानूनन बिभक्त हो चुकी है...निम्मी वंदन की क़ानूनन ब्याहता है....

जोभी हो, वंदन की ज़िम्मेदारी है, कि आमने सामने बात साफ़ करे....जिस विश्वासके साथ निम्मीने उसे उसकी भूतपूर्व पत्नीके पास भेजा था....उतनीही जिम्मेदारीसे उसने अपना बर्ताव रखना चाहिए था...

सुबह हो गयी....लेकिन मै किसीसेभी संपर्क नही कर पायी....लग रहा था, जैसे मै किसीभी वक्त अपने होश खो बैठ सकती हूँ....और एक दिन बाद मेरे बच्चे, जो दोनों शेहेरके बाहर थे, लौट आएँगे...मै उनसे अपनी हालत तो नही छुपा सकती...वंदन की कितनी इज्ज़त करते हैं दोनों...उन्हें क्या कहूँगी??

एकेक पल, मानो एक सदीकी तरह गुज़र रहा था....पर वक्त थम नही रहा था...उसी रफ्तारसे गुज़र रहा था....मुझे चाहे एक पल,एक युग लगे....शांत, स्तब्ध मौहौलमे, मेरे कमरेकी घडीकी टिकटिक सुनायी दे रही थी....मेरे हाथसे फिसल रहे लमहोंका कितना अधिक एहसास करा रही थी....

मेरे घरमे कितनी विलक्षण खामोशी थी....कान कितने अधीर थे कि, कहीँ कोई इंसानी वजूदका एहसास हो...कुछ तो आवाज़ हो...एक बार तो फोन बजे...चाहे कहींसे हो....अपने मोबाइल से मै चिपकी हुई थी....चाय बनाऊँ ? कॉफी बनाऊँ? पियूँ ? बेहतर लगेगा? नही...बनानेकी ताक़त नही है...कामवाली औरत को छुट्टी दे रखी थी....

पडोसमे जाऊँ? क्या कहूँ वहाँ जाके? जिनके आगे मैंने वंदन को एक फ़रिश्ता बनाके पेश किया था....उन्हें ये कहूँ कि वो फ़रिश्ता क्या...एक घटिया से घटिया आदमीकी तौरपे सामने आ रहा है....बेज़िम्मेदार, डरपोक...

लेकिन मुझे अभी सच पता था? सचमे ऐसा हुआ था? बेहतर होगा, मै खामोश रहूँ....लेकिन ये इंतज़ार मेरी जान ले रहा था...असह्य लग रहा था........टिक टिक....खामोशी को भेदनेवाली यही एक आवाज़.....

मै लेट गयी...पैर...पैर क्या, अब तो पूरा जिस्म काँप रहा था...
और फोन बजा...मै ऐसे झपटी, जैसे चीता किसी शिकारकी तरफ़ झपटता हो....फोन मेरे पतीका था...
" क्या कर रही हो? तुम्हारी आवाजमे इतनी परेशानी क्यों है?",इनकी आवाज़...
" परेशाँ हूँ...बेहद...आपसे कितनी बार संपर्क करनेकी कोशिश कर चुकी...क्या आपको मेरे sms भी नही मिले?",मै बरस पड़ी ...
" नही तो..मुझे तो हैरानी हो रही थी कि, मै फोन करता जा रहा था, और मुझे मेसेज मिल रहा था," पोहोंचके बाहर...", इनका उत्तर...
"कमाल है...मुझे आपकी ओरसे यही मेसेज मिल रहा था...खैर !आप अभी के अभी, पहले वंदन और फिर निम्मीसे संपर्क करनेकी कोशिश कीजिये....उनसे..."मै इन्हें निर्देश देने लगी....
"लेकिन बात क्या है? मुझे पहले ये तो बताओ...क्या परेशानी है? ऐसी क्या जल्दबाज़ी है...? हो क्या गया है तुम्हें?", इन्होंने टोक दिया....
मैंने संक्षेपमे इन्हें सारी बात बता दी....ये कुछ समय स्तब्ध हो गए....फिर बोले,
"मेरी निम्मीसे बात हुई.....निम्मीको ये ख़बर दी गयी है....वो पूरी तरह टूट गयी है....मै जानना चाह रहा था तुमसे...कि तुम्हें कुछ आगेकी बात पता है....निम्मीने मुझसे कहा,' मै तो वंदन को माफ़ कर दूँ...पर मुझसे बात तो करे....मै समझ सकती हूँ...इंसान है...उसने उस औरतसे कभी प्यार किया था...लेकिन मुझसे बात तो करे....'..."
इन्हों ने मुझे ख़बर दी।

"तो निम्मीने आपसे बात की..मुझसे नही...? कमाल है...? उसने एक पलभी नही सोचा कि, जब मुझे ख़बर मिली होगी तो मुझपे क्या गुजरेगी..?"अब मुझे निम्मीपे गुस्सा आने लगा....
" देखो, जो मेरे साथ हुआ...वही उसके साथ...उसेभी तुम्हारा नंबर नही मिल रहा था...और ना मुझे पता था, ना उसे, कि तुम्हें किसीने ख़बर दी होगी...", मेरे पतीने मुझसे बताया...
"तो अब हमें क्या करना चाहिए? कैसे पता चलेगा कि, सच्चाई क्या है? कौन बतायेगा? आप वंदन का फोन तो मिलाएँ...", मै बताने लगी....
"तुम्हें क्या लगता है..मैंने वंदन को फोन नही लगाया होगा...? "इन्होंने पूछा....
"चलिए ठीक है...जब मुझे येही नही पता था कि, आपसे निम्मीका संपर्क हुआ, तो मै और क्या कह सकती थी...?"मैंने जवाब दिया....

निम्मीकी प्रतिक्रया सुन, मुझे कुछ तो तसल्ली मिली...गर वंदन सीधे संपर्क करे,तो बात बन सकती है....एक सदमाही सही...हम सभीके लिए...लेकिन, जीवन आगे तो बढ़ सकता है....
उस राततक मेरे पती और बच्चे लौट आए....बच्चे अपनेआपमे इतने मशगूल थे, कि घरमे क्या हालत हैं, उन्हें महसूस ही नही हुआ...थके हुए थे...जल्दी सोभी गए...एक और रात गुज़र गयी....

अंतमे वो लम्हा भी आ गया जब वंदन हमसे रु-बी-रु हुआ....मै बता नही सकती कि, वो दिन मेरे लिए क्या लेके आया....

सारी बातें साफ़ होने लगीं...जो हमें बताया गया था, वो पूर्ण असत्य था...वंदन की पत्नी बीमार थी...वंदन उसे अस्पताल ले गया था...
और जिस व्यक्तीने वो ख़बर दी...वो? उसने क्यों ये सब कहा....वंदन ने उसे नोटिस दे दी थी....जिस अस्पतालसे वंदन जुडा हुआ था, उस अस्पतालमे उस व्यक्तीने कुछ बोहोतही अनैतिक हरकत की थी.....बस उसी बातका उसने बदला लेना चाहा..और हमारे अत्याधुनिक संपर्को के ज़रियों ने, उसने सोचाभी नही था, उतना उसका काम आसान कर दिया...

मेरा ईश्वरके ऊपर, उस विराट शक्तीके ऊपर, तो विश्वास औरभी बढ़ गया...लेकिन, इन संपर्को के ज़रियोंपर कितना विश्वास हमने करना चाहिए....ये सवाल खड़ा कर दिया...आगाह कर दिया उन ४८ घंटोंने....हमें जबतक हमारा अपना, अपने मुहसे कुछ नही कहता....वोभी आमने, सामने...किसी औरपे विश्वास नही रखना चाहिए...हमारी ज़िंदगी तबाह हो सकती है...

दुआ करती हूँ, ऐसा भयानक दौर किसीके ज़िन्दगीमे ना आए.....आज वंदन और निम्मी हमें उतनेही प्यारे हैं...जितनेकी कभी थे....अच्छा हुआ..मुझे ईश्वरने सही बुद्धी दी, कि, मैंने निम्मीके सास-ससुरसे संपर्क नही किया...वरना, उन्हें, उनके बुढापे मे ना जाने कितना अधिक सदमा मिल जाता....अच्छा हुआ कि, उस व्यक्ती के पास उनका नंबर नही था....वरना उसने उन्हें जीते जी मार दिया होता....
समाप्त।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ६

निम्मी तथा उसका परिवार जब हमारे शेहेरसे विदा हुए तो लगा, जैसे कोई अपने नैहरसे विदा ले रहा है.....निम्मी इसतरह मेरे गले लगके रोई कि, हर आँख रो दी....अजीब आलम था...माँ-बाबूजी उसके लिए खुश थे...अपने आपके लिए कहीँ एक और बिछोह्का गम मनमे छुपाये हुए...

वंदन भी गया.....शायद उसके लिए इतनी दुविधा नही थी...

ब्याह्की तारीखभी तय हो गयी...एक माहके अन्दर, अन्दर सब होना था...और जितना मैंने सोचाभी नही था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे सबकुछ हो गया...ब्याह मेरे घरसे हुआ...विदा किया, निम्मीके सास ससुरने ...जो हमेशा उसके माता पिता रहे....उसकी बेटियाँ, मानो उसकी सखियाँ बन गईं थीं........

उन्हें उनकी पाठशालाकी पढाई होनेतक अपने दादा दादीके पासही रखना तय हुआ था...और निम्मीभी कुछ रोज़ वंदन के साथ बिता, उन्हींके पास चली आयी....

वंदन ने अपनी वैद्यकीय practice के लिए , निम्मीके ससुरालके पासका एक महानगर चुन लिया...केवल दो घंटों का फासला था....
हरेक चीज़ जैसे पूर्व निर्धारित हो, अपनेआप घटती गयी....मुझे कई बार लगता मानो एक सपना देख रही हूँ...
कितनी बार उस विराट शक्तीके आगे नतमस्तक हो जाती....इसकी गिनतीही नही रही...

३ साल पँख लगाके बीत गए.....मेरे बच्चे, दोनों अलग, अलग शेहेर, आगेकी पढ़ाई के खातिर जानेका विचार करने लगे...मै दिल थामे बैठे रही....

वंदन का दुनियाके विभिन्न शहरों मे सेमीनार/ कांफ्रेंस के लिए आता जाता रहता....निम्मीसे फोनपे बात हो जाया करती.....वंदन भी फोन कर दिया करता...निम्मीने एक नामांकित पत्रिकामे काम करना शुरू कर दिया था...एक मौक़ा ऐसा आया, जब उसे अन्य देशमे मेहमान faculty के तौरपे आमंत्रण आया....उसके माँ-बाबूजी ने अपनी पोतियों की ज़िम्मेदारी सहर्ष स्वीकार कर ली....निम्मी और वंदन, दोनोही दो अलग देशों मे चले गए...

और पता नही कैसे, क्या हुआ, उनका, आपसी तथा, अपने परिवारके साथ संपर्क हो नही पाया....

विवाह्के बाद एकबार वंदन की प्रथम पत्नी ने वंदन के साथ संपर्क बनानेकी कोशिश की थी...निम्मीनेही वंदन को प्रोत्साहित किया कि, वो अपने मनमे कटुता न रखे...और एक दोस्तकी तरह उससे मिल लिया करे...वंदन का UK सबसे अधिक आना जाना रहता....

अबके जब दोनों बाहर मुल्क गए हुए थे, वंदन का आखरी फोन उसकी प्रथम पत्नीके शेहेरसे आया...निम्मीसे बात हुई...और उस वार्तालाप के बाद, वंदन का फोन निम्मीने लगातार बंद पाया...इतनी ख़बर तो मुझे मिली...और फिर उस शाम वो अजीबो गरीब ख़बर.....जिसने मेरे पैरों तलेसे ज़मीन खिसका दी....

क्या, करूँ ? हे इश्वर ! मुझे कोई तो राह दिखा...मै क्या करुँ? मै क्या करुँ ??ये ख़बर एक सपना था या, गुज़रे ३ साल... ......क्या सच था....क्या...क्या.....मेरा मन एक आक्रोश करता जा रहा था....किसे विश्वास दिलाऊँ...? किसकी जवाबदेही करुँ?? ना निम्मीसे संपर्क ना वंदन से.........बस एक वो ख़बर...उसके बाद जिसने वो ख़बर दी, उसके साथभी कोई संपर्क नही....
क्रमशः

रविवार, 12 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ५

मेरी एक पलभी आँख नही लगी...लेकिन कोई थकान नही थी....एक बच्चों की-सी ताज़गी और नए दिनका इंतज़ार...
कई बार मनमे आया निम्मीको गुदगुदाके जगा दूँ...फिर लगा, नही....मेरा मन एक सपना बुन रहा है...उसे जगाके गर ये सपना टूट गया तो??मैंने तो वंदन के दिलो दिमागमेभी एक ख्वाबका बीज बो दिया है...उसके कोंपल बननेसे पहले मुझे उखाड़ फेंकना पडा तो.....?
तो वंदन शायद ज़िंदगीभर निम्मीके आगे नही आयेगा...शायद मेरे आगेभी नही...एक दर्द , जो वो भूलना चाहेगा, मेरेसे मिलना उसे उसीकी याद दिला देगा....
पर मैंने ऐसे नकाराक्त्मक ख़याल दिलमे नही लाने चाहियें....मै नही तो शायद उसके माँ-बाबूजी( मतलब उसके सास-ससुर ), या उसकी अपनी बेटियाँ उसे मना सकती हैं....उसे सोचनेपे मजबूर कर सकती हैं...माँ-बाबूजीको, उनके बुढापेमे एक बेटा मिल जाएगा....वंदन के रूपमे...क्या इतनाभर काफ़ी नही...? उसे तुंरत निर्णय लेनेके लिए तो कोई नही कहेगा...सोच तो सकती है...

अपने पास लेटी ,अपनी सखीपे एक निगाह डाली मैंने....उसका पहला प्यार तो भुलानेके लिए कोई नही कह रहा...उसकी जगह तो कोई नही माँग रहा...बल्कि, उसकी उस भावनाकी हर किसीको कद्र है...
मूँदी हुई आँखें....आँखों के नीचे हल्की-सी कालिमा...मैंने निम्मीको गौरसे निहारा....इतनी मासूम मुझे वो कभी नही लगी थी...और शायद इतनी मायूसभी...समय हर घाव मिटाता है...पर देता क्यों है...? इसने क्या बिगाडा था? या माँ-बाबूजीने...? या उसकी औलादने??
इनमेसे किसी सवालका ना मेरे पास उत्तर था ना दुनियाके किसी ज्ञानी ध्यानीके पास...अपना नसीब....और क्या कहेँ?

निम्मीने एक करवट लेनी चाही शायद और उसका हाथ मेरे हाथपे आ पडा...एक झटकेसे जाग गयी...ऐसे जागी मानो किसी सपनेसे जागी हो...बड़ी हैरत से उसने मुझे एक आध पल देखा...बोली'" ओह! भूलही गयी थी कि तेरे घर सोयी हूँ...!और मै कब सो गयी? तू कब आयी सोनेके लिए? वंदन कबतक था? मै तो बस कुछ देर लेटने आयी...तू मेरे पास बैठी थी...और आगेका कुछ यादही नही...मैंने तो उसे बाय भी नही किया...चल, वो सब छोड़...तू क्यों ऐसे देख रही है मुझे....? क्या बात है? कितने बजे हैं? साढ़े छ:...ज्यादातो नही...तू बैठी हुई क्यों है? चायके लिए मेरा इंतज़ार कर रही थी क्या?? तूने ले लेनी चाहिए थी...मेरे साथ फिर एक कप....अरी बोलना....क्यों घूरे चली जा रही है...?"

अब मेरा दिल धक् से रह गया...वो वक्त आ गया था, जब मुझे उसके आगे कुछ उजागर करना था...मैंने अपने अल्फाज़ भी अभी चुने नही थे...उधेड़ बुनमेही लगी हुई थी...और ये सवालपे सवाल किए जा रही है....चाय बनाते, बनाते अपने शब्द चुन लूँ? और ये साथ आके खडी हो गयी तो...?

"निम्मी...तू.....और सोना तो नही चाह रही...मतलब उठनेकी कोई जल्दी नही है....आरामसे उठ...छुट्टियाँ मनाने आयी है...जल्दी क्या है...?" मैंने अपनी इच्छाके पूरी विपरीत बात कही...मै तो कबसे चाह रही थी कि, ये जग जाय...और अब अचानक से जाग गयी तो मै बौखला रही हूँ...

"नही तो...और कितना सो लूँगी...? मुझे तेरे साथ गप लगानी है...ऐसे मौके बार, बार थोडेही आएँगे?अच्छा चल...मै ज़रा मुँह धो लूँ....बस दो चार मिनट देदे...तूने ब्रश कर लिया? या चायके बाद करेगी? मै तो सुबह की चाय बिना ब्रश किए लेती हूँ...फिर सब कुछ....तू पानी तो चढ़ा...मै ये गयी और ये आयी..."कहते हुए निम्मी पलंग परसे उतर आयी और स्नान गृहमे घुस गयी...
मैंने रसोईकी और अपना रुख किया....किसीभी पल निम्मी बाहर आयेगी....मुझे खोयी-सी देख फिर पूछेगी...उधर वंदन इंतज़ार कर रहा होगा...वो सुबह्के नाश्तेके लिए आयेगा या नही....? निम्मीके जवाब पे मुनहसर होगा....गर उसकी द्विधा मन:स्थिती होगी तो शायद वो आना नही चाहेगा....

मै चायके उबलते पानीको घूरे चली जा रही थी और निम्मी पोहोंच गयी...
"अरे क्या कर रही है...?सुबह्से देख रही हूँ, तेरा ध्यान किसी औरही बातमे है...पानी खौलता जा रहा है और तुझे तो जैसे नज़रही नही आ रहा...चल हट...आज मै बनाती हूँ चाय....या तो बिना पत्तीकी बनाएगी या बिना दूधकी...आसार तो ऐसेही नज़र आ रहे हैं...पतिदेवका कुछ फोन आ गया क्या..??"
कहते, कहते उसने चायके प्याले भरभी दिए...ट्रे पकड़ मुझे बरामदेकी ओर ले चली....

कूर्सीपे आरामसे बैठ फिर एकबार मुझसे मुखातिब हुई," हाँ अब बोल...क्या बात है जो तू छुपाये जा रही है...? रातमे ऐसा क्या घट गया कि मेरी सखीके चेहरेपे हवाइयाँ उड़ रही हैं...अरी बोलना......?"
ये वही पुरानेवाली बेसब्र निम्मी थी....और मै संजीदा....

उसकी बाँह पे मैंने अपना हाथ रखा और बडेही स्नेह्से उसे भींच लिया....फिर अपने गालोंपे लगा लिया....और मेरे मूहसे कुछ अल्फाज़ बेसाख्ता निकल्ही पड़े...जिन्हें अब रोकना मुश्किल भी था और लाज़िम भी नही था...ऐसा करना वंदन पेभी एक दबाव बनाये रखता.....

मैंने उसकी आँखोंमे गहरे झाँकते हुए कहा, "निम्मी,तुझसे कुछ संजीदगीसे बात करना चाह रही हूँ.....ज़्यादा भुमिका नही बनाउँगी...कुछ बातें माँ-बाबूजीसे कर चुकी हूँ......अब तुझसे...कोई दबाव नही...सब निर्णय तेरेही हक़्मे होंगे, तेरीही मर्ज़ीके मुताबिक ...हम सभी तुझसे बेहद प्यार करते हैं.....बस इस बातको हमेशा अपने मनमे गाँठ बाँधके रख ले...."

"पर तू तो पहेलियाँ ही बुझाए जा रही है...मै विचलित हुए जा रही हूँ...अब बोलभी दे...जोभी मनमे है...मेरा वादा रहा कि, मै किसीभी बातको ना तो अन्यथा लूँगी या बुराही मानूँगी ....मेरे माँ-बाबूजी, तू, तेरे मेरे बच्चे, ये सब मेरे खैरख्वाह हैं...मेरा बुरा सोचही नही सकते...तो अब बता दे..."उसने खाली प्याला मेज़पे रख दिया...और मेरी शकल की ओर अपलक देखने लगी....

अब मेरे आगे कोई चाराही नही था...ना अधिक भूमिका बनानेका प्रयोजन....मै बस बोलते चली गयी....उसको पूर्व संध्यामे हुई माँ-बबूजीके साथकी बातें...बादमे वंदन के साथ हुई बातें...मेरा अपना विचार..सबकुछ, एकही साँस मे बता दिया...

निम्मी एकदम खामोश हो गयी...मैंने इसी प्रतिक्रियाकी आरम्भमे उम्मीद की थी...ना जाने उसकी आँखोंके आगेसे क्या, क्या गुज़र जायेगा...एक बिखरी ज़िंदगीके सँजोए सपने...उनका टूटना और अब फिरसे एक निर्णय...जबकि वो शायद किसी गंभीर निर्णय लेनेकी अवस्थामेही नही थी...

कुछही पल बीते, जिसके पहले कि वो कुछ बोली..पर लगा बोहोत वक्त गुज़रा....उसने मेरा हाथ अपने हाथों मे कसके पकड़ा और फिर उठके मुझे अपने सीनेसे भींच लिया.....सिसिकियाँ फूट पड़ीं.....मै उसकी पीठ सहलाती रही...एक बार लगा, माँ-बाबूजीको पहले बुला लिया होता तो शायद बेहतर होता...मैंने उसका चेहरा अपने हाथों मे लेके उससे पूछा," निम्मी, क्या तू चाहती है, कि, इसवक्त माँ-बाबूजी तेरे साथ हों? या तेरी अपनी बेटियाँ? तुझे कोई अपराधबोध तो नही हो रहा...गर ऐसा..."

वो मुझे फिर एकबार कसके बिलग गयी,बोली," नही रे....ऐसा सोचभी कैसा सकती है तू...मै तो गदगद हो गयी कि, मेरे अपनोंने मेरे लिए कितना कुछ सोचा...ऐसा किसका नसीब होता है, जो मेरा है..ऐसे सास-ससुर, ऐसे बच्चे, ऐसी सहेली और एक ऐसा बचपनका दोस्त जो मुझेही नही, मेरे ससुरालको अपनाने खड़ा है....
"मै ख़ुद लज्जित हूँ कि, मेरी तो इतनी हैसियतभी नही..... सब मेरा इतना ख़याल करें...मेरे सुखी भवितव्य के आगे अपना भवितव्य भुला दें.......मै तो वंदन काभी बड़प्पन कहूँगी कि, उसने अपने परिवारसे बात किए बिना अपना निर्णय सुना दिया...और उसपे वो अडिग रहेगा येभी जानती हूँ.....नतमस्तक हूँ इन सभीके आगे.....निर्णय अब मै मेरे हाथमे नही, आप सभीके हाथमे छोड़ देती हूँ.....जानती हूँ, एकबार मै ग़लत हो सकती हूँ, पर मेरे अपने नही...आँख मूँदके विश्वास करती हूँ...
"हाँ....मेरे पतीको भुलाना आसान काम नही...बस वो एक उम्मीद मुझसे कभी मत रखना...लेकिन आगे क्या होगा ये तो नही जानती...पर ये वादा करती हूँ, कि वो वक्त जो मैंने अपने पहले प्यारके साथ बिताया, मै भूल नही पाऊँगी...."
निम्मी काफ़ी देर भावावेशमे बोलती जा रही थी...और मुझे एक राहत मिलती जा रही थी...उसने वंदन को नकारा नही था.....इस वक्त वंदन के लिए इतनाही काफ़ी था...कुछ देर उसे शांत करके मैंने स्नानके लिए भेज दिया...और फिर सबसे पहले वंदन को फोन कर अपने घर बुला लिया...ताकि माँ-बाबूजी भोजनके समयतक पोहोंचें तो इन दोनोंकी कुछ तो आपसमे बात चीत हो सके.....

मुझे ये काम जितना कठिन लगा था, उतना नही था....अब आगे काफ़ी कुछ वंदन के रवैय्येपे मुनहसर था..उसकी संजीदगीपे काफी दारोमदार थी....
वंदन, निम्मी नहाके निकली उसके पहलेही मेरे घर पोहोंच गया....बल्कि उन दोनोको थोड़ा नाश्ता और कॉफी देनेके बादही मै नहाने चली गयी और शांती-से स्नान किया...चाह रही थीकि, उन दोनोको अकेलेमे बातचीत का मौक़ा मिले.....

खाना चाहे घरपे बना लें...चाहे इन दोनोंको बाहर भेज दें...माँ-बाबूजीके साथ एकबार वंदन को अब मिलवानाही था....एक बेटा पाके, वो खुशही होंगे....मैंने सोचा था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे घटनाक्रम घट गया था...निम्मीका मुझपे, अपने परिवारपे , अटल विश्वास देख मै निहाल हो गयी....बार, बार उस विधाताके आगे नतमस्तक होते हुए मेरी आँखों से अविरल धारा बहती रही....

अबतो कितना कुछ करना था...वंदन को अपने माता पिताको ख़बर देनी थी...निम्मीको अपने माता पिताको..मुझे अपने नैहर और ससुरालमे.........

दोपेहरके भोजनके लिए मैंने निम्मीको अपने हाथोंसे तैयार किया...उसनेभी बिल्कुल ना नुकुर नही की...जानती थी,कि उसकी ना नुकुर सभीका मूड ख़राब कर सकती है......माँ-बाबूजीका दोनोने आशीर्वाद लिया और तब बाहर गए....मैंने उन दोनों वृद्धों को अपने आँसू पोछते हुए देखा...लड़कियाँ तो खुशीसे फूले नही समाँ रही थी....मेरे बच्चों के साथ मिल उनके तो ना जाने कितने प्रोग्राम तय होने लग गए थे.....मै चोर निगाहोंसे वंदन को देख लेती...उसकी निगाहें, निम्मीका पीछा करती रहतीं...और जब कभी उसे महसूस होता कि पकडा गया है, तो हलकेसे मुस्काके मुझे एक स्नेहभरी निगाहसे देखता....

अब एकही दुआ मेरे मनसे निकल रही थी..."हे इश्वर....अबके सब ठीकठाक करना....बस मेरे इन फरिश्तों जैसे दोस्तों के जीवन मे खुशियाँ ही खुशियाँ भर देना...माँ-बाबूजीको उनकी बुढापे की लाठी दे देना...बड़ी पुण्यात्माएं हैं.....शत शत बार तेरे दरपे नतमस्तक हूँ....अपना नज़रे करम रखना...."

एक जोश भर गया था हम सभीमे.....फेहरिस्त बनानी थी...ज़रूरी चीजोंकी..सादगीसे विधी करनी थी....फिरभी ज़रूरी नही था, कि , किसी मनहूसियत के बादल मँडराते रहें...मौक़ा तो खुशीका था...दो अत्यन्त नेक और अच्छे लोगोंको दोबारा अपना जीवनपथ सजनेका मौक़ा मिल रहा था....

मेरा नेक, पाक,साफ़ इरादा ईश्वरने मान लिया था...मंज़ूर कर लिया था...मुझे तो रहके रहके विश्वास नही हो रहा था...निम्मी और वंदन बाहर जानेको निकले तो मैंने अपनी आँखोंके काजलका टीका दोनोंके कानके पीछे लगा दिया....भगवान् इन्हें हर बद नज़रसे बचाना...
क्रमश:

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम ? ४

उस रात मैंने निम्मीको अपनेही घर रोक लिया....उसके माँ-बाबुजीको क़तई ऐतराज़ नही था...वो तो किसी तरहसे निम्मीको हँसमुख देखना चाहते थे....उसके बच्चे अपने दादा-दादीके पास लौट गए...दोनों लड़कियाँ बेहद जिम्मेदार और स्नेहमयी थीं....

गर मेरे पती घरपे होते तो शायद मै वंदन कोभी, मेरेही घर रोक लेती...लेकिन निम्मीसे खूब जी भरके बातें होती रहीं....निम्मी अपने खोये प्यारको याद करतेही रो पड़ती....उसके पतीने उसे बेहद प्यार और सम्मान दिया था...ऐसी किस्मत विरलाही होती है, ये वो मै दोनोही मान गए थे...

सुबह नाश्तेके समयतक वंदन भी आ पोहोंचा....बच्चे हमें पूछ, अपनी, अपनी दिनचर्या बनाते रहे....सभी इतने हिलमिल गए थे कि माना नही जाता था .....पहचान बस अभी अभीकी है....

माँ-बाबूजीको किसी मंदिरके दर्शन करनेकी चाहत थी...मैंने बच्चों को ये ज़िम्मेदारी सौंप दी....कोई न-नुकुर नही हुई...मैंने अपनेआपको इस मामलेमे खुशकिस्मत समझा...वरना अक्सर बच्चे ऐसी जिम्मेदारियाँ स्वीकारना नही चाहते...और कुछ तो निम्मीकी बेटियोंका असर ज़रूर था...दोनोही अपने दादा-दादीका बड़े मनसे ख्याल करतीं...

जब ये सब अपनी अपनी दिशओंमे निकल पड़े, तो हम तीनो फिर गपशप मे लग गए....मै दो चार बार रसोईके लिए उठके अन्दर चली जाती रही....खाना झटपट वाला बनाया था....अधिकसे अधिक समय बातचीतमे गुज़ारना चाह रही थी....
दिनके ढलते एक बात मुझे महसूस हुई, वो ये कि , वंदन निम्मीकी ओर मोहित हो चला है....उसकी हर छोटी ज़रूरतका, मूह खुलनेसे पहलेही अंदाज़ लगा लेता....मुझसे ये बात छुपी नही...निम्मीने शायद गौर किया नही.....
एक ख्याल मनमे मेरे चोर क़दमोंसे दाखिल होने लगा...गर ये दोनों अपना घरौंदा फिर एकबार बसा लें तो??

जानती थी, कि , माँ बाबूजी तो खुशही होंगे....बेटी समझ उसका कन्यादान कर देंगे.....क्या निम्मी मानेगी? वो अभीभी अपने पहले प्यारकी दुनियामे जी रही थी....कहीँ न कहीँसे अपने बिछडे प्यारको, वो अपने संभाषण मे लेही आती....उसके बारेमे क्या कह डाले, कितना कह डाले....उसके लिए कम था...सारे बाँध खुल गए थे....और हम उसे रोकना टोकना नही चाहते थे....भरी भरी-सी एक बदरी थी...छलक जाना बेहतर था....

पर वंदन फिर कब मिलेगा...? ऐसा मौक़ा कब फिर आयेगा? ये सब कुछ एकसाथ घट रहा था...... नियतीका कुछ इशारा तो ना था...मै नही तो, इस वक़्त कौन समझदारीसे क़दम उठा सकता है...?
उस शाम मै खामोश-सी रही....कुछ रसोईका बहाना, कुछ अन्य कामोंका बहाना बनाके, वंदन और निम्मीको नदीके किनारे, जो एक पहाडीके पास गुज़रती थी, घूमनेके लिए भेज दिया....बेताब थी, कि जब दोनों लौटेंगे तो कुछ तो बात आगे बढ़ी समझमे आयेगी.....

लेकिन नही समझ पाई...हाँ! वन्दनको ज़रूर मैंने थोड़ा खामोश पाया...अब मैंने अपना दिल कडा किया...माँ-बाबूजीको मिलने मै देर शाम उनके गेस्ट हाउस पोहोंचही गयी....समय कम था...और बातकी नज़ाकत समझनी ज़रूरी थी....निम्मीकी ओरसे अधिक....माँ-बाबुजीका रवैया तो मुझे हर तरहसे आश्वस्त कर गया गया था......
मैंने, अधिक भूमिका ना बनाते हुए, सीधेही उनकी राय पूछ ली....

दोनोंकी आँखोंमे पानी छलछला आया....कुछ देर खामोशी छा गयी...एक ज़िंदगी मेरे आँखों के आगेभी घूम गयी...निम्मीसे बिछड़ना...मतलब अपनी औलादसे जुड़े एक अध्याय को अपनेसे जुदा कर देना...
अपनी लाडली पोतियोंको से अलग होना...चाहे वो उन्हें मिलती रहें...कोई बीचका ऐसा मार्ग था, कि, जो इन नए रिश्तोंके बन जानेके बादभी, शारीरिक नज़दीकियाँ बनाये रखे?

वंदन का काम इस बातमे आडे आनाही था....उससे कितनी उम्मीद रखी जा सकती थी? अभी तो उसके साथ बातभी नही हुई थी...नाही निम्मीसे...उसकी क्या प्रतिक्रया होगी? उसकी बेटियाँ? जानती थी, कि , अपनी माँ के हर सुखमे उनकी ख़ुशी है....

निम्मीसे कुछभी कहनेसे पूर्व, मैंने वंदन से बात करना ज़रूरी समझा....उसे निम्मी सो जानेतक रुकाये रखा....जब मैंने देखा, कि, निम्मी गहरी नींदमे सो गयी है, मै बाहर आ गयी.......वंदन के साथ काफी के प्याले लेके बैठ गयी........ सीधे उसकी आँखोंमे झाँकते हुए, सवाल कर दिया," निम्मी के बारेमे तुम जितना ज़रूरी है, उतना तो जानही गए हो...दोनोंके आगे लम्बी ज़िंदगी है...एक दोस्त, हमसफ़र की ज़रूरत है...जो एकदूसरेका सहारा हों, एकदूसरेको समझें....और सफर तय करें....बचपनके साथी होनेके कारण काफ़ी कुछ खुली किताब-सा है....क्या ऐसा हो सकता है?"

वंदन ने खामोशीसे सब सुन लिया और बोला," गर मुझसे पूछो तो निम्मीने तुंरत मेरा मन मोह लिया....शायद उसकी संजीदगी कहो या, निष्कपटता कहो.....ज़राभी बनावट नही है उसमे...और ऐसेही नही उसके सास-ससुर उसकी इतनी इज्ज़त करते हैं......पर उसकी राय बेहद ज़रूरी है...और प्लीज़ , इस बारेमे बात, मेरे जानेके बाद करना...मै संपर्क मे रहूँगा...वरना मै उसके साथ आँख न मिला पाउँगा..."

वंदन का जवाब सुन मेरे मनमे एक विलक्षण खुशीका एहसास हुआ...काश!!ऐसा हो जाए...काश ये दोनों अपना जीवन नए सिरेसे बसा लें...वंदन एक जिम्मेदार पिता साबित होगा इस बारेमे मुझे कोई शक नही था....
कल जैसेही वंदन जायेगा, मै निम्मीके साथ बात कर लूँगी...और फिर उसकी बेटियोंसेभी .........
शुभस्य शीघ्रम........मै खुदही बेताब हुए जा रही थी....उन दोनों को खुश देखना चाह रही थी.....जहाँ चाह वहाँ राह....यकीनन, मेरे इरादे इतने, नेक,पाक साफ़ हैं.....मुझे अवश्य सफलता मिलेगी.....उस रात मै, इन्हीं दिवासपनोंमे खोयी रही....निम्मीके जागनेका इंतज़ार करती रही.....

क्रमशः

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम ?३

इन्तेज़ारकी घडियाँ ख़त्म हुई...तक़रीबन साथ, साथ ही , निम्मी तथा उसका परिवार और वंदन, मेरे घर पोहोंच गए....!

मै निम्मीकी सहेली थी...उसके सास ससुरके लिए, मैभी उनकी बेटीही थी...जब भी उन लोगोंसे मिली, उन्हों ने उसी प्यार और अपनेपन से मुझे गले लगाया था....आजभी....मेरे बच्चों को अपनेही पोते पोती माना....या यूँ कहेँ, नातिन माना.....जोभी हो, उनके प्यारमे बेहद निश्चलता थी.....कोई दिखावा नही, कोई बनावट नही....ऐसे इंसानों के साथ क्यों किस्मत ने ऐसा छल किया? एकही एक ऑलाद, और वोभी छिन गयी??

खैर...! वंदन, उन सबसे पहली बार मिल रहा था...मैंने अपनी आँखोंमे भर आए आँसू छुपाते हुए, उनका वंदन से परिचय कराया.....निम्मीकी दोनों बेटियाँ भी बडीही स्नेहमयी थीं...बड़ी ज़रा मोटू..छोटीवाली छरहरी....मेरे बच्चे शायद ज़रा अंतर्मुख थे...लेकिन इन दो लड़कियों ने पलभर मे ऐसा मौहोल बनाया मानो, उनका रोजमर्रा का मेलजोल हो....!

मेरे पती शेहेरके बाहर गए हुए थे....अगले दिन शामको लौटने वाले थे...सोचा, देखते हैं...गर फिर एकबार हम सब इकट्ठे हो सकेँ तो...लेकिन, उनके आनेपरही इन सभीको बुलाना...इतना धीरज मुझमेही नही था....बेकरार हो उठी थी सबसे मिलनेके लिए....!

खाना कब परोसा गया...कब खाया गया...समय किस रफतारसे बीतता गया....पताही नही चल रहा था.....हर व्यंजनकी तहे दिलसे तारीफ़ करते हुए, निम्मीके सास-ससुरने भोजन किया....निम्मीकी बड़ी लडकी, मेरा बेटा और वंदन, तीनो शतरंज के अच्छे खिलाड़ी थे....निम्मीकी छोटी लडकी को संगीत और नृत्य मे बेहद रुची थी....
उसे मेरा तबला और पेटी दिख गयी..मैंने तो उन्हें छूना पता नही कबसे बंद कर दिया था....वो जब हाथ धोने मेरे कमरेमे गयी तो उसने ये साज़ देख लिए....मुग्धता से उन्हें निहार रही थी, और मेरी नज़र पड़ गयी....मैंने कहा,
" क्यों, मन है इन्हें एकबार सुरमे लानेका?"
"जी, मासी...बोहोत...मै बजा सकती हूँ???"मुग्धाने मुझसे पूछा...हाँ, उसका नाम मुग्धाही था...
"बच्चे, ज़रूर...इनकी तो किस्मत खुल गयी...!" मैंने खुश होके कहा...
उसने पलकीभी देरी नही की....नाही उसे कोई झिझक थी....हारमोनियम को सुरमे लाके, उसने तबलेपेभी अपना हाथ आज़माया...साथ मीठी, सुरीली आवाजमे गुनगुनाती रही...

इधर मेरा बेटा, निम्मीकी बड़ी बेटी, शुभ्रा और वंदन शतरंज लेके बैठ गए....वैसे खेल तो शुभ्रा और वंदन रहे थे, लेकिन मेरे बच्चे, दोनोंके बीछ टांग अडा रहे थे....शुभ्रा वंदन को चेकमेट देनेही वाली होती,कि, मेरा बेटा, उमंग, वंदन को आगाह कर देता...और शुभ्रा चिल्लाके मुझे पुकारती...,
" मासी...इसे यहाँसे हटाओ ना...देखो इसने तीसरी बार, मेरा बँटा धार किया है.....!"
मै उसे वहाँसे हटनेके लिए कहती तो वंदन, उसे खींचके अपने पास बिठा लेता...मेरी बिटियाने शुभ्राको आगाह करना शुरू कर दिया...हालाँकि वो, (मोहिनी),इतनी माहिर नही थी, जितना कि मेरा बेटा...

चायका समय होने आया तो मैंने पास जाके सारे मोहरे उलट पलट दिए.....!तब कहीँ जाके वंदन उठा और हमलोगोंके साथ आ बैठा.....निम्मीके सास-ससुर, खानेके बाद कुछ देर आराम करने कमरेमे चले गए थे...मै चाय बनाने रसोईमे मुडी तो निम्मी और वंदन, दोनों मेरे साथ आके खड़े हो गए ......
बातचीतका एक अलगही दौर चल पडा....जिसने हमारे बचपनकी और रुख किया...और फिर अपने, अपने जीवनके उतार चढाओं के ओर मुड़ गया....
कई घटनाएँ ऐसी थीं, जिनसे वंदन वाक़िफ़ नही था...और उसके अपने जीवनमे काफ़ी कुछ था, जिससे मै और निम्मी वाक़िफ़ नही थे.....

हम तीनों बातों मे लग गए तो हमारे बच्चों ने बिन कहे, चाय-नाश्तेके दौरको अपने आप सँभाल लिया...अपने दादा-दादीको चाय नाश्ता परोस दिया....उन्हें बगीचेमे ले गए....पताही नही चला कि, कब शाम गहराती गयी....
"चलो, हम सभी रातका खाना कहीँ बाहर खा लेते हैं....!"
"हाँ, हाँ, ऐसाही ठीक रहेगा...चलिए मासी, आपकोभी थोडा आराम मिल जायेगा...", मुग्धा बोल पड़ी.....निम्मीनेभी ज़ोर दिया...सबका यही विचार था कि, कुछ और समय इकट्ठे बितानेके लिए मिल जायेगा....

निम्मीके सास-ससुरने कहा," भई, हमलोग तो रातमे मुश्किल से कुछ खाते हैं...और वैसेभी दोपेहेरका भोजन अभी हज़म नही हुआ...हम दोनोको तो गेस्ट हाउस छोड़ दो...तुम सब घूम आओ.."

मेरे बेटे उमंगने कहा," पर हम चारों कहीँ और जाएँगे...आपलोगोंके साथ नही.....ममा...हमने तो सोच लिया कि, मल्टीप्लेक्स मे जाके १० बजेका शो देखेंगे.....चलेगा ना?"

सब इस तरहसे हिलमिल गए थे कि, मेरे ना कहनेका सवालही नही उठता था....
निम्मी मुझसे बोली," उफ़! तू मेरी साडी तो देख...कितनी चुम्हला गयी है...कैसे लगेगी॥?"
"तो क्या? तू मेरी कोई साडी पेहेन ले....चोली तो एकदम अच्छी है...इसी चोलीपे मेरी ४/५ साडियाँ पहनी जा सकती हैं...चल आ मेरे कमरेमे...और चुन ले....!"मैंने उसे खींचके उठाते हुए कहा....

"मतलब तुम दोनों तो खूब सज सँवर लोगी और मै ऐसेही चलूँ...? या तो तुम दोनोका ड्रायवर लगूँगा या बॉडी गार्ड.... ........!"वंदन कह उठा....
" अब चल भी ...ज़्यादा नाटक नखरे मत दिखा...", मै बोल पड़ी...
"मुझे कमसे कम मुँह हाथ धोनेका तो मौक़ा दोगी या नही तुम दोनों..?"
वंदन ने बड़े नाटकीय ढंगसे हाथ जोड़ते हुए कहा....
" हाँ, हाँ....लो, चलो, मौक़ा और तौलिया दोनों हाज़िर हैं..!."मैंने स्नानगृह की ओर इशारा करते हुए कहा.....

चंद मिनटों मे सब तैयार हो गए....बच्चों ने अपना रुख कर लिया...हम तीनों ने पहले, माँ और बाबूजी को गेस्ट हाउसपे छोडा और फिर एक ज़रा शांत होटल की तलाशमे निकल पड़े.... चयन का काम तो मुझपेही सौंपा गया....

याद नही कि तक़रीबन चार घंटे कैसे बीत गए.....वंदन, जोकि, दूसरेही दिन लौटने वाला था...और दो दिनों के लिए रुक गया....इधर मेरे पतीकी वापसी ३ दिनोंके लिए और आगे मुल्तवी हो गयी...वंदन चाह रहा था कि, इनसे मिलता जाय ...पर आसार नज़र नही आ रहे थे....

मै मनही मन खुश थी कि, निम्मीको अपने दुखोंसे, यादों से, कुछ तो निजात मिल रही थी....उसकी उदासी किसी परछाई की तरह, उड़न छू होते जा रही थी.....फिरभी, बेमौसमकी बदरी की भाँती, लौटभी आती....लाज़िम था....घाव हरा था...बहने लग जाता....

अगले दिनका क्रम हमलोग तय कर रहे थे......जितनाभी समय हमलोगोंके पास था, हमने इकट्ठे ही बिताना था...ऐसा मौक़ा फिर मिले ना मिले....किसीको कोई ऐतराज़ भी नही था....निम्मीके सास-ससुर तो निम्मीके लिए खुश ही हो रहे थे....हम बिछडे इस्तरह्से मिले थे, जैसे कभी जुदा हुएही न हों.....इन दो-तीन दिनोंमे कितना कुछ घटनेवाला था, किसे ख़बर थी...?
क्रमशः

रविवार, 5 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम...? २

क्या लिखूँ...कहाँसे शुरू करुँ? वंदन और निम्मी के बारेमे बताना...?कितना पीछे चली जाऊँ....मन टटोल रही हूँ...

वंदन, मै और निम्मी, एकदूसरेको बचपनसे जानते थे...महाविद्यालाय्के दिन आए तो, वंदन ने अपनी पढाईके लिए दूसरा शेहेर चुना...मै और निम्मी उसी शेहरमे, लेकिन अलग, अलग विषय होनेके कारण दो भिन्न महाविद्यालायोंमे पढ़ते रहे.....
जितना पाठ्शालाके दिनोंमे एकदूसरेके घर आना जाना होता था, अब कम हो गया...मैंने अपनी स्नातक की पदवी पा ली और साहित्य विषय मेही MA करने का निर्णय ले लिया। निम्मीने मास communication का कोर्स ले लिया।
अक्सर छुट्टियों मे वन्दनसे मुलाक़ात हो जाती। वंदन ने मेडिसिन शाखा चुनी थी। MBBS के बाद उसने अपनी internship मुम्बईमे पूरी की...तेज़ दिमाग़ था...लगन थी...सर्जरी शाखा चुन वो UK चला गया....FRCS भी बन गया....
निम्मी ने अपने पसंदके लड़केसे शादी कर ली...वो व्यक्ती उसके महाविद्यालय के faculty पे था। सुलझा हुआ....स्नेहिल और हँसमुख...परिवारभी खुले खयालात का...दोनोंके परिवारवाले प्रसन्न थे...

निम्मीके ब्याह्के चंद दिनोबाद मेराभी ब्याह हो गया...अब हमलोग वाकई बिछड़ गए...ख़तोकिताबत एकही ज़रिया था तब...या कभीकबार फोन....संपर्क बनाए रखनेका...
वंदन के साथ तो मानो संपर्क नाके बराबर रहा....निम्मीकी खबरभी मुझे अधिकतर मेरे नैहरवालों से मिलती...मेरा पीहर एक गांवमे था....वहाँ तो फोन नहीही था...
दिन महीने साल गुज़रते रहे....अपने, अपने उतार चढाओं के साथ हम अलग, अलग मोडोसे मुड़ते हुए, जीवन पथपे चलते रहे...

वंदन का भी ब्याह हो गया था...उसकाभी अपना परिवार था...वो UK मेही स्थायिक था...उसकीभी ख़बर मुझे अपने नैहरसेही मिल जाती...
मेरी और निम्मीकी शादीको १४/१५ साल हो गए थे...निम्मीको दो बेटियाँ थी....वंदन को कोई ऑलाद नही थी...मै कभी उसकी पत्नीसे मिलीही नही थी...नाही निम्मी....मेरे परिवार तथा बच्चों के चलते, मेरा अपने नैहर आना जाना काफ़ी दूभर हो गया था...बीमारियाँ, स्कूल, परीक्षाएँ...सभी कारण मौजूद रहते....

और एक दिन ख़बर मिली कि , निम्मीके पतीका एक सड़क दुर्घटना मे अंत हो गया....कितना सुखी परिवार था...मानो किसीकी नज़र लग गयी....
निम्मीकी ससुरालवालों ने उसे अपनी बेटीही माना था....उसे हर तरहसे मनोबल दिया...अपना दुःख भूल, उसके सास ससुर, उसीकी चिंता करते....मै ख़ुद उसके पास कुछ दिन गुज़ार आयी...

इस घटनाको भे देखतेही देखते एक साल हो गया...अबके, बड़ी मुद्दतों बाद मुझे अपने नैहरमे कुल २५ दिन बितानेका मौक़ा मिला....एक रोज़ शाम ऐसेही हमसब बैठे हुए थे कि , मुझे वंदन के बारेमे पूछ्नेकी सूझ गयी....और सुना कि उसका तो ब्याह कबका टूट गया....! ३/४ साल हो गए उस बातको....! और अब तो वो भारत लौट आनेके प्रयासमे था....!
एक ओर ख़ुशी हुई कि, अपने बचपनका साथी भारत लौट रहा है...दूसरी ओर दुःख हुआ कि, उसके जीवन मे इसतरह से अस्थैर्य आ गया....

मै लौट गयी अपने ससुराल....कुछ छ: माह बादकी एक बात बता रही हूँ...निम्मी और उसके परिवारवाले , छुट्टियों मे घुमते घामते हमारे शेहेर आ पोहोंचे...मै बेहद खुश हुई...पर मनही मनमे एक बात आही गयी...काश निम्मी, अपने पतीके रहते, एक बार तो आयी होती...!

उन लोगोंको आए २/३ दिनही हुए थे, कि मुझे वंदन के ,उसी शेहेरमे आनेकी ख़बर मिली...मैंने उसके साथ बडी शिद्दतके साथ संपर्क किया...उसे आग्रह किया, कि, वो मेरे घर ज़रूर आए...कि,निम्मी भी आयी हुई है, अपने परिवारके साथ...उसने सहर्ष मान लिया...मैंने सभीको भोजनपे आमंत्रित किया....

लग रहा था, मानो अपना बचपन लौट रहा है...क्या, क्या, बातें होँगी...कितना अरसा हो गया....कितना कुछ कहनेके लिए होगा...कितना कुछ सुननेके लिए होगा....निम्मीकी खामोशी, उसे घेरे हुई उदासी, कुछ लम्हों के लिए दूर होगी...

बडेही चावसे मैंने खाना बनाया...घर सजाया....और इंतज़ार करने लगी...सभीके आनेका....निम्मी तथा उसका परिवार एक अथितिग्रुहमे रुके थे....मेरे लाख कहनेके बावजूद कि, मेरेही घर रुकें....मैंने ३ बार वहाँ फोन कर पता किया...आ तो रहे हैं ना...वंदन कोभी उसके सेल्पे संपर्क करती रही...अपने घरका पता समझाती रही....
क्रमशः