रविवार, 21 जून 2009

बोले तू कौनसी बोली ? ५

कई किस्से ऐसे हैं, जो मै कभी लिख नही पाउंगी...! कहना कुछ चाह रही थी, और कहा कुछ...! वो भी भरी महफिल मे!
सुनने वाले तो पेट पकड़ के हँस रहे थे, और मुझे लग रहा था, कि, ज़मीं मे गड़ जाऊँ! तो ऐसी बातों को छोड़ के आगे बढ़ती हूँ...!

कुछ बातों का मज़ा लिख के नही लिया/दिया जा सकता...उन्हें सुनना ही ज़रूरी होता है...तो ऐसी बातें भी फेहरिस्त से हट गयीं...!खैर !

एक अंग्रेजी मध्यम मे पढ़ रहे बच्चे को, उसकी ११ वी की परीक्षा को मद्दे नज़र रख, हिन्दी पढ़ाने/सिखाने की कोशिश कर रही थी...
अपनी पाठ्य पुस्तक मे से वो कुछ संस्मरण पर लेख पढ़ रहा था...एक ख़ास शब्द सुना तो मै ज़ोर से हँस पड़ी..."हमस फर"!.....मैंने कहा," फिर एक बार पढो...."!
उसने दोबारा वैसे ही पढा...
मैंने वही बात दोहराई...! वो परेशान होके मुझ से बोला," आप किताब मे देख भी नही रहीँ, और मुझ से कह रहीँ हैं, दोबारा पढो...मै जो पढ़ रहा हूँ, वही लिखा है..!"
"हाँ ! पता है, लेकिन तुम्हारा उच्चारण ग़लत है...!",मैंने बिना किताब देखे ही उसे बताया...
" होही नही सकता..!"उसने बहस करनी शुरू कर दी...!
"अच्छा ? तो फिर इस शब्द का मतलब मुझे बताओ,"मैंने कहा...
"मतलब तो मुझे नही पता..मतलब पता होता तो आपके पास पढने क्यों आता?" उसने शरारती तरीक़े से प्रतिप्रश्न किया!
ये बच्चा था, मेरी बहन का बेटा...!
मैंने, अपनी बहन को फोन लगाया और कहा," तुम एक शब्द का मतलब बता सकती हो?"
"मै? कमाल है? ऐसा कौनसा शब्द होगा जिसका अर्थ मुझे आता हो और आपको नही!"उधर से फिर एक सवाल हुआ...!
"अच्छा, कोशिश तो करो....!"कह के मैंने वही शब्द दोहराया...
"क्या कहा? ये भी कोई शब्द है? ना बाबा...मुझे नही समझ मे आ रहा...और आप इतना हँस क्यों रहीँ हैं?"उसने हैरानी से पूछा !
"तेरा बेटा जो पढ़ रहा है...!अच्छा, अब सुन...मै तुम दोनों को एक साथ ही बताती हूँ...! वो उस शब्द का संधी विच्छेद ग़लत कर रहा है...अब तो मैंने पोल खोल दी...अब तो बता...!"मैंने फिर एक बार अपनी बहन से पूछा...

"ऐसा कौन-सा शब्द हो सकता है? अभी, बता भी दीजिये...! मेरे पेट मे खलबली मच रही है", बहना बोली...
"अरे बाबा, शब्द है,' हम सफ़र'.....",अंत मे मैंने उसे बता ही दिया...और वो भी खूब ज़ोर ज़ोर से ठहाके के साथ हँस पड़ी....

लेकिन उसके सुपुत्र ने पूछा," हम सफ़र? उसका क्या मतलब ? मै तो अभी भी नही समझा...!'हम तकलीफ दे रहे हैं' ऐसा मतलब होता है इसका?"

अब की बार मेरी बोलती बंद हो गयी...!
मै भूल गयी,कि, ऐसे कई शब्द तो मै हिन्दी गीत सुनते सुनते सीख गयी थी....! किसी ने सिखाया तो नही था...! और ये बच्चे कभी हिन्दी गीत सुनते ही नही थे...!

ऐसे कई क़िस्से इस बच्चे के साथ हुए...! क़िस्से तो बहुतों के साथ हुए, लेकिन, मराठी तथा अंग्रजी भाषा, एक साथ जब तक पढने वाले ना जाने, बयान करना मुश्किल है....फिर भी अगली बार कोशिश ज़रूर करूँगी...!
उपरोक्त क़िस्सा भी जो लिखा, उसे सुनने मे अधिक मज़ा आता है...हिन्दी भाषिक पढ़ते समय तुंरत समझ जाते हैं....!

बुधवार, 17 जून 2009

बोले तू कौनसी बोली ? ४

काफ़ी साल हो गए इस घटनाको...बच्चे छोटे थे...हमारे एक मित्र का तबादला किसी अन्य शेहेर मे हो गया। हमारा घर मेहमानों से भरा हुआ था, इसलिए मेरे पतीने उस परिवार को किसी होटल मे भोजन के लिए ले जाने की बात सोची।

एक दिन पूर्व उसके साथ सब तय हो चुका था... पतीने उससे इतना ज़रूर कहा था, कि, निकलने से पहले, शाम ७ बजेके क़रीब वो एकबार फोन कर ले। घरसे होटल दूर था...बच्चे छोटे होने के कारण हमलोग जल्दी वापस भी लौटना चाह रहे थे।

उन दिनों मोबाईल की सुविधा नही थी। शाम ७ बजे से पहलेही हमारी land लाइन डेड हो गयी...! मेरे पती, चूंकी पुलिस मेहेकमे मे कार्यरत थे, उन्हों ने अपने वायरलेस ऑपरेटर को, एक मेसेज देके उस मित्र के पास भेजा," आप लोगों का सहपरिवार इंतज़ार है..."

हमारे घर क़रीब थे। ऑपरेटर पैदल ही गया। कुछ देर बाद लौटा और इनसे बोला," उन्हों ने फिर एकबार पूछा है..उन्हें मेसज ठीक से समझ नही आया..."
हम दोनों ही ज़रा चकित हो गए...मैंने इनसे कहा," आप एक चिट्ठी लिख दें तो बेहतर न होगा?"
"अरे, इतनी-सी बात है...उसमे क्या चिट्ठी लिखनी?"
इतना कह,इन्हों ने फिर एकबार अपनी बात उस ऑपरेटर के आगे दोहरा दी।
ऑपरेटर जाके लौट आया। हमारा फोन तो डेड थाही। तकरीबन ९ बजे उसमे जान आयी...एक हलकी-सी'ट्रिंग" की आवाज़ मुझे सुनाई पड़ी...! मैंने इन्हें झट अपने मित्र को फोन करने के लिए कहा...
इन्हों ने फोन घुमाया," अरे यार! क्या हो गया है तुम लोगों को? हम शाम ७ बजे से इंतज़ार कर रहे हैं...अब ९ बजने आए...! कहाँ रह गए हो? हमसे ज़्यादा तो तुझे जल्दी थी, बच्चों के कारण.....!"

" लेकिन तूने तो कहा था,कि, बस हमही लोग हैं...तूने ये औपचारिकता क्यों कर दी? और लोगों को क्यों बुला लिया?" हमारे मित्र ने कुछ शिकायत के सुर मे कहा पूछा।

"लेकिन तुझे किसने कह दिया कि, और लोगों को आमंत्रित किया है? बस तुम लोग हो और हम चार...! "मेरे पती ने कहा...

"अरे यार ! मैंने तो दो बार पुछवाया, कि, और कौन आनेवाला है, और तू कहता रहा,'सफारी पेहेन के बुलाया है'...अब सफ़ारी सूट तो औपचारिक आयोजनों मे पहना जाता है..मै तो कुरता पजामा पेहेन आनेवाला था...मेरी बीबी अब सफ़ारी पे इस्त्री कर रही है....!"

"अरे भैया , तुझे किसने कहा 'सफ़ारी' पेहेन के आने को....? अब जैसा है वैसा ही आजा..." इनकी आवाज़ शायद कुछ अधिक बुलंद हुई होगी, क्योंकि, उसकी पत्नी ने सुन ली...!

इनके मित्र ने जवाब दिया," यार, अब मेरी बीबी कह रही है, इतनी मुश्किल से तो ये सूट ढूँढा...कहाँ loft पे पडा मिला...अब यही पहनो...उसने इस्त्री भी की है...खैर, आते हैं हमलोग..बस और ५ मिनिट दे दो...!"
मुझे ये सँवाद सुनाई पड़ रहा था, और बात समझ मे आने लगी तो मेरी हँसी छूटती जा रही थी, और इन्हें गुस्सा चढ़ता जा रहा था..!

इन्हों ने ओपरेटर को बुला के डाँटना शुरू किया," कमाल है तुम लोगों की...इतना सीधा मेसेज समझ नही सकते..वायरलेस पे क्या समझते होगे? मै "सेह्परिवार" कहता चला जा रहा था, और तुम "सफ़ारी" सुन रहे थे?"

अब ये 'उच्चारण 'का भेद मुझे समझ मे आ रहा था... मराठी मे "सह परिवार" इसतरह उच्चारण होता है, जबकि, ये 'सेप्ररी वार "...इस तरह से उच्चारण कर रहे थे...और वो लड़का उसे 'सफ़ारी" सुन रहा था...!

मैंने अपने पती का गुस्सा शांत करने के ख़ातिर कहा," आप अपने आपको चंद रोज़/माह आगे कर के देखो...आपको ख़ुद इस बात पे हँसी आयेगी...तो अभी ही क्यों न हँस लें?"

खैर! मेरा वो प्रयास तो असफल रहा...लेकिन, ये सच है,कि, चंद रोज़ बाद इसी बात को याद कर हम सब खूब हँस लेते थे...जब कभी अपने अन्य दोस्तों को बताते....बडाही मज़ा लेके बताते...अब तो जब सफ़ारी की बात निकलती है, हम उसे 'सह परिवार' कहते हैं, और जब 'सह परिवार' की बात होती है तो उसे 'सफारी' कह लेते हैं....ख़ास कर मै ख़ुद!

शुक्रवार, 5 जून 2009

बोले तू कौनसी बोली ! ३

४/५ साल हो गए इस घटनाको...मै अपनी किसी सहेलीके घर चंद रोज़ बिताने गयी थी। सुबह नहा धोके ,अपने कमरेसे बाहर निकली तो देखा, उसकी सासुजी, खाने के मेज़ पे बैठ ,कुछ सब्ज़ी आदि साफ़ कर रही थीं.......१२ लोग बैठ सकें, इतना बड़ा मेज़ था...बैठक, खानेका मेज़ और रसोई, ये सब खुलाही था...

मै उनके सामने वाली कुर्सी पे जा बैठी...तबतक तो उन्हों ने सब्ज़ी साफ़ कर,आगेसे थाली हटा दी...मेरे आगे अखबार खिसका दिए और, फ़ोन बजा तो उसपे बात करने लगीं....

उसी दिनकी पूर्व संध्या को, मै मेरी अन्य एक सहीली के घर गयी थी...ये सहेली उस शेहेर के सिविल अस्पताल मे डॉक्टर थी। उसने बडीही दर्द नाक घटना बयान की...और उस घटना को लेके बेहद उद्विग्न भी थी...मुझसे बोली,
" कल मै रात की ड्यूटी पे थी....कुछ १० बजेके दौरान ,एक छोटी लडकी अस्पताल मे आयी...बिल्कुल अकेली...अच्छा हुआ,कि, मै उसे आपात कालीन विभाग के एकदम सामने खडी मिल गयी...उसकी टांगों परसे खून की धार बह रही थी....उम्र होगी ११ या १२ सालकी...

"मै उसके पास दौड़ी और उसे लेके वार्ड मे गयी...नर्स को बुलाया और उससे पूछ ताछ शुरू कर दी...उसके बयान से पता चला कि, उसपे सामूहिक बलात्कार हुआ था...जो उसे ख़ुद नही पता था...उसे समझ नही आ रहा था,कि, उन चंद लोगों ने उसके साथ जो किया,वो क्यों किया...इतनी भोली थी.....!अपने चाचा के घर गयी थी...रास्ता खेतमे से गुज़रता था...पढनेके लिए, अपने मामा और नानीके साथ शेहेर मे रहती थी...शाम ६ बजे के करीब लौट रही थी..."उस" घटना के बाद शायद कुछ घंटे बेहोश हो गयी...जब उसे होश आया तो सीधे हिम्मत कर अस्पताल पोहोंची....नानी के घरभी नही गयी....उसे IV भी चढाने लगी तो ज़रा-सा भी डरी नही...

मै जानती थी,कि,ये पोलिस केस है...अब इत्तेफाक से मेरे पती यहाँ पोलिस विभाग मे हैं,तो, मैंने उसकी ट्रीटमेंट शुरू करनेमे एक पलभी देर नही की...
"वैसेभी, हरेक डॉक्टर को प्राथमिक चिकित्चा के आधार पे ट्रीटमेंट शुरू करही देनी चाहिए...बाद मे पोलिस को इत्तेला कर सकते हैं..मैंने अपने पती को तो इत्तेला करही दी...लेकिन, अस्पताल मे भी पुलिस तैनात होती ही है...
वहाँ पे चंद मीडिया के नुमाइंदे भी थे..अपने साथ कैमरे लिए हुए...!

"यक़ीन कर सकती हो इस बातका, कि, उतनी गंभीर हालात मे जहाँ उस लडकी को खून चढाने की ज़रूरत थी...वो किसी भी पल shock मे जा सकती थी..मैंने ओपरेशन थिएटर तैयार करनेकी सूचना दी थी...उसे टाँके लगाने थे...और करीब ३० टांकें लगे...इन नुमाइंदों को उसका साक्षात् कार लेनेकी, उसकी फोटो खींचने की पड़ी थी...?
नर्स और वार्ड बॉय को धक्का देके..... पुलिस कांस्टेबल को भी उन ३/४ नुमाइंदों ने धक्का मार दिया..., उसके पास पोहोंच ने की कोशिश मे थे....! वो तो मैंने चंडिका का अवतार धारण कर लिया...उस बच्ची को दूसरे वार्ड मे ले गयी...स्ट्रेचर पे डाला,तो उसके मुँह पे चद्दर उढ़ा दी...वरना तो इसकी फोटो खिंच जानी थी ...!"

इतना बता के फिर उसने बाकी घटना का ब्योरा मुझे सुनाया...मै भी बेहद उद्विग्न हो गयी..कैसे दरिन्दे होते हैं...और हम तो जानवरों को बेकार बदनाम करते हैं...! जानवर तो कहीँ बेहतर...! पर मुझे और अधिक संताप आ रहा था, उन कैमरा लिए नुमाइंदों पे...! ज़रा-सी भी संवेदन शीलता नही इन लोगों मे? सिर्फ़ अपने अखबारों मे सनसनी खेज़ ख़बर छप जाय...अपनी तारीफ़ हो जाय, कि, क्या काम कर दिखाया ! ऐसी ख़बर तस्वीर के साथ ले आए...! सच पूछो तो इस किस्म की संवेदन हीनता का मेरा भी ये पहला अनुभव नही था...जोभी हो!

मै जिनके घर रुकी थी, रात को वहाँ लौटी तो मेरे मनमे ये सारी बातें घूम रही थीं...सुबह मेज़ पेसे जब अखबार उठाये,तो बंगाल मे घटी, और मशहूर हुई एक घटना का ब्योरा पढ़ने लगी...उस "मशहूर" हुए बलात्कारी को सज़ा सुनाई गयी थी, और चंद लोगों ने उसपे "दया" दिखने की गुहार करते हुए मोर्चा निकाला था...ये ख़बर भी साथ, साथ छपी थी...! दिमाग़ चकरा रहा था....!

इतनेमे मेरी मेज़बान महिला फोन पे बात ख़त्म कर मेरे आगे आके बैठ गयीं और बतियाने लगीं," आजकल रेपिंग भी एक कला बन गयी है..."

मैंने दंग होके उनकी ओर देखा...! क्या मेरे कानों ने सही सुना ?? मेरी शक्ल पे हैरानी देख वो आगे बोली," हाँ! सही कह रही हूँ...हमलोग तो लड़कियों को ये हुनर सिखाते हैं....!"
कहते,कहते वो, अपनी कुर्सी के पीछे मुड़ के बोलीं ," अरे ओ राधा...ठीक से रेप कर...अरे किसन...तुझे मैंने रेप करना सिखाया था ना...अरे ,तू मेरा मुँह क्या देख रहा है...सिखा ना राधा को...करके दिखा उसको...राधा, सीख ज़रा उससे...ठीकसे देख, फिर रेप कर...!"

मेरी तरफ़ मुडके बोली," कितना महँगा पेपर बरबाद कर दिया...! ज़रा मेरा ध्यान हटा और सब ग़लत रेप करके रख दिया...!"

अब मेरी समझमे आने लगा कि, उस बड़ी-सी मेज़ के कुछ परे, एक कोनेमे,( जो मुझे नज़र नही आ रहा था, और पानी चढाने की मोटर चल रही थी, तो कागज़ की आवाज़ भी सुनाई नही दे रही थी), उनके २ /३ नौकर चाकर , कुछ तोहफे कागज़ मे लपेट रहे थे!

उनके पोते का जनम दिन था ! जनम दिन पे आनेवाले "छोटे" मेहमानों के खातिर, अपने साथ घर ले जानेके लिए तोहपे, "रैप" किए जा रहे थे! ! इन मेज़बान महिला का उच्चारण "wrap"के बदले "रेप" ऐसा हो रहा था....और मै अखबार मे छपी ख़बर भी पढ़ रही थी....तथा,पूर्व संध्या को सुनी "उस" ख़बर का ब्योरा मनमे था...उस घटना के बारेमे ख़बर भी वहाँ के लोकल अखबार मे छपी थी..मैंने उसे भी पढा था..ग़नीमत थी,कि, लडकी का नाम पता नही दिया था...! ज़ाहिर था, उन्हें मिलाही नही था...!

लेकिन चंद पल जो मै हैरान रह गयी, उसका कारण केवल मेरे दिमाग़ का" अन्य जगह" मौजूद होना था...वरना, मुझे इन उच्चारणों की आदत भी थी.....!
क्रमश:

( अब वर्तनी को बेहद ध्यान से चेक किया है...कहीँ मेरे लेखन मे भाषाको लेके कुछ "ग़लत फ़हमी" ना उभरे!)

मंगलवार, 2 जून 2009

बोले तू कौनसी बोली ?२

मै मराठी भाषा बचपनसे सीखी...पाठ्शालामे माध्यम भी वही था, जबकि मेरे घरमे हिन्दुस्तानी बोली जाती थी..और लिखत उर्दू या हिन्दुस्तानी मे मेरी माँ तथा दादी बड़ी सहज थीं..., पर बात करनेका ढंग, या लहजा, रोज़ मर्रा की बोलीमे बदल जाता..कभी हैदराबादी भाषाका असर आता( खासकरके मेरी दादीकी भाषापे या फिर गुजराती का )....माँ की भाषा और उच्चारण , हमेशा गुजराती से प्रभावित रहे...वोभी मूल वडोदरा की थीं...दादी खम्बात की....दादाकी भाषा पे गुजराती और बम्बैया हिन्दी, इन दोनोका प्रभाव था। लेकिन "गयेला," कियेला" ऐसे शब्द बोलचालमे हरगिज़ नही आते।

दादा जब अंग्रेज़ी बोलते तो लगता कि , कोई ऑक्स्फ़र्ड मे पढ़ा व्यक्ति बोल रहा है। उर्दू पढ़ते थे, लेकिन बोलनेमे लहजा उसकी नज़ाकत खो देता...उनका येभी इसरार रहता कि, गर हम बच्चे हिन्दुस्तानी मे बोल रहे हों,तो उसमे अंग्रेजीके शब्द नही आने चाहियें! खैर मूल मुद्देपे आती हूँ...

मै स्कूल मे चार भाषाएँ सीखती रही..... चूँकि मेरी मातृभाषा मराठी नही थी, मै और अधिक सतर्कता से उस ओर गौर करती...उसमे मुझे मराठी गीत, या अन्य रेडिओपे होनेवाले कार्यक्रम, इनकी बड़ी सहायता मिली...इतनी,कि, मै हर भाषामे सबसे अधिक अंक प्राप्त कर जाती...मराठीके कुछ गीत जो लताजी के गाये हुए हैं, मै उन्हें ताउम्र भूलही नही सकती...!

अब ज़िन्दगीमे ऐसे मौक़े आए जब मुझे ये भाषा, किसी अमराठी भाषिक को सिखानी पड़ गयी...उनमे मेरे बच्चे तो शुमार थेही..उसके पहले मेरे पती शुमार हो गए...सेवा कालके पहले कुछ साल तो डेप्युटेशन पे गुज़रे...लेकिन जब होम कैडर मे लौटे,तो मराठी का इम्तेहान देना ज़रूरी हो गया....हम लोग ठानेमे थे उन दिनों...समय कम मिलता था, इन्हें सिखाने के लिए...जब कभी, किसी कारन, ठाने से मुम्बई जाना होता ,या फिर जब वापस लौटते, तो मै इनके पाठ शुरू कर देती...उन दिनों पहली बार मुझे समझ मे आया कि, मराठी, देशकी सबसे अधिक क्लिष्ट भाषा है! ! और बांगला सबसे अधिक आसान! ये तो मैंने शुक्र मनाया कि, मराठी और हिन्दी की लिपि देवनागरी ही है...न होती,तो पता नही" मेरा क्या होता(कालिया)?"

अब इस भाषा का व्याकरण मैंने तो ईजाद किया नही था...पर जब कभी इन्हें टोक देती तो ये मुझपे बरस पड़ते...! मानो ये टेढा व्याकरण मेरी ईजाद हो! ख़ैर, किसी तरह पास तो होही गए....वरना तनख्वाह मे बढोतरी रुक जाती!
अब बच्चों की भी बारी आ गयी थी...और हमारी पाठ्य पुस्तकें तो सीधे साहित्य सिखाने चल पड़ती हैं...बोली भाषा नही!

ऐसेही एक शाम याद है...कुछ इनके सहकारी, हमारे घर भोजनपे आए हुए थे। पती पुलिसमे , महाराष्ट्र कैडर के ..पत्नी डॉक्टर...सिविल अस्पताल मे नौकरी करती थीं...उन्हें भी मराठी की परीक्षा दिए बिना चारा नही था..!
जब इनके पती कोल्हापूर मे तबादले पे आए हुए थे, मोह्तरेमा को , अखबारों के मध्यम से मराठी सीखने की सूझ गयी...

बोली," मै सुबह चाय की चुस्की लेते,लेते मराठी अख़बार की हेड लाइन्स पढ़ ने लगी...छपा था," एक दुम जली बस गड्ढे मे गिरी "!( ये वाक्य ,वैसे तो मराठी मे था...यहाँ,पाठकों की सुविधा की खातिर हिन्दी मे लिख रही हूँ..)...
"अब मै हैरान..मैंने अपने अर्दली से पूछा,भैया, ये क्या चक्कर है...हमने हवाई जहाज़की दुमके बारेमे सुन रखा था...अब ये बस की कहाँ से दुम पैदा हो गयी......और पहले दुम जली, फिर वो जाके गड्ढे मे गिरी....!
"मैंने ने जब ये अर्द्लीको पढ़के सुनाया तो वोभी बौखला गया...ऐसी बात उसनेभी कभी सुनी थी ना पढी थी...!"

खैर, उस महिलाने जैसेही वो हेड लाइन सुनायी, मेरा हँसीके मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था....लोग मुझे निहार रहे थे,कि, इसे हो क्या गया है,जो इतना अधिक हँसती चली जा रही है...!
मै थी,कि, उन्हीं के मूहसे वो अफ़साना गोई सुनना चाह रही थी...बिना दख़ल दिए...समझ रही थी, कि,किस ग़लत फ़हमी के कारण, ये अजीबो गरीब, और हास्यास्पद प्रसंग उभरा है...

खैर, उन्हों ने आगे सुनाया," मैंने उसे अखबार थमाते हुए कहा, 'देख ये, पढ़ इसे, और मुझे बता के ये क्या चक्कर है...पहले तो बसकी दुम जली और जाके गड्ढे मे गिरी...अर्द्लीने पढ़ा और अपनी हँसी को दबाते हुए बोला,'बाई साहेब, ये लिखा है,"दुमजली" लेकिन इसे मराठी मे पढ़ा जाएगा," दु मजली", मतलब दो मंज़िली...डबलडेकर बस!"

लिखा तो "दुमजली", इसी तरह से जोडकेही जाता है, पढ़ते समय, दु मजली पढा जाता है!

अब सारे मेहमान हँस हँस के लोटपोट होने लगे! !

इस वाक़या के बाद जब कभी मै अपने या किसी औरके बच्चों को मराठी या हिन्दी सिखाती और ग़लत संधि विच्छेद से पढ़ते सुनती, तो मेरा ये "कोड वर्ड"बन गया था..मै कहती रहती," दुमजली, दुमजली."...इशारा होता, अलग, अलग तरहसे संधि विच्छेद करके आज़माओ!!!

एक बार मुम्बई से नाशिक जा रही थी..बोगीमे काफ़ी सारे परिचित मित्र आदि बैठे मिले...बातोंमे बात चली तो मैंने, उन मे से सभी हिन्दी भाषिकों को " दुमजली" ये शब्द ,देवनागरीमे लिखके पढने के लिए दिया...सभीने उसे "दुमजली" ही पढ़ा...और हैरानीसे पूछा, "ये बताओ, पहले, कि, बस की दुम जली और फिर गड्ढे मे गिरी, ये लिखना कुछ ख़ास दर्शाता है क्या....."

जब सही संधि विच्छेद सामने आया तो पूरी बोगी ठहाकों से गूँज उठी....

भाषा भेदसे मैंने लोगों मे ज़बरदस्त मनमुटाव होते देखा है..लेकिन इन संस्मरणों मे सिर्फ़ मज़ेदार किस्से ही बयाँ करूँगी!

अगली बार कुछ और...ऐसे तो पिटारे भरे पड़े हैं!

क्रमश: