सोमवार, 11 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ७

कुछ अरसा हुआ इस बात को...पूरानें मित्र परिवार के घर भोजन के लिए गए थे। उनके यहाँ पोहोंचते ही हमारा परिचय, वहाँ, पहले से ही मौजूद एक जोड़े से कराया गया। उसमे जो पती महोदय थे, मुझ से बोले,"पहचाना मुझे?

"मै: "माफ़ी चाहती हूँ...लेकिन नही पहचाना...! क्या हम मिल चुके हैं पहले? अब जब आप पूछ रहें है, तो लग रहा है, कि, कहीँ आप माणिक बाई के रिश्तेदार तो नही? उनके मायके के तरफ़ से तो यही नाम था...हो सकता है, जब अपनी पढाई के दौरान एक साल मै उनके साथ रही थी, तब हम मिले हों...!"

स्वर्गीय माणिक बाई पटवर्धन, रावसाहेब पटवर्धन की पत्नी। रावसाहेब तथा उनके छोटे भाई, श्री. अच्युत राव पटवर्धन, आज़ादी की जंग के दौरान, राम लक्ष्मण की जोड़ी कहलाया करते थे। ख़ुद रावसाहेब पटवर्धन, अहमदनगर के 'गांधी' कहलाते थे...उनका परिवार मूलत: अहमदनगर का था...इस परिवार से हमारे परिवार का परिचय, मेरे दादा-दादी के ज़मानेसे चला आ रहा था। दोनों परिवार आज़ादी की लड़ाई मे शामिल थे....

मै जब पुणे मे महाविद्यालयीन पढाई के लिए रहने आयी,तो स्वर्गीय रावसाहेब पटवर्धन, मेरे स्थानीय gaurdian थे।जिस साल मैंने दाखिला लिया, उसी साल उनकी मृत्यू हो गयी, जो मुझे हिला के रख गयी। अगले साल हॉस्टल मे प्रवेश लेने से पूर्व, माणिक बाई ने मेरे परिवार से पूछा,कि, क्या, वे लोग मुझे छात्रावास के बदले उनके घर रख सकते हैं? अपने पती की मृत्यू के पश्च्यात वो काफ़ी अकेली पड़ गयीं थीं...उनकी कोई औलाद नही थी।

मेरा महाविद्यालय,उनके घरसे पैदल, ५ मिनटों का रास्ता था।मेरे परिवार को क़तई ऐतराज़ नही था। इसतरह, मै और अन्य दो सहेलियाँ, उनके घर, PG की हैसियत से रहने लगीं।

माणिक बाई का मायका पुणे मे हुआ करता था...भाई का घर तो एकदम क़रीब था।उस शाम, हमारे जो मेज़बान थे , वो रावसाहेब के परिवार से नाता रखते थे/हैं....यजमान, स्वर्गीय रावसाहेब के छोटे भाई के सुपुत्र हैं...जिन्हें मै अपने बचपनसे जानती थी।अस्तु ! इस पार्श्व भूमी के तहत, मैंने उस मेहमान से अपना सवाल कर डाला...!

उत्तर मे वो बोले:" बिल्कुल सही कहा...मै माणिक बाई के भाई का बेटा हूँ...!

"मै: "ओह...! तो आप वही तो नही , जिनके साथ भोजन करते समय हम तीनो सहेलियाँ, किसी बात पे हँसती जा रहीँ थीं...और बाद मे माणिक बाई से खूब डांट भी पड़ी थी...हमारी बद तमीज़ी को लेके..हम आपके ऊपर हँस रहीँ हो, ऐसा आभास हो रहा था...जबकि, ऐसा नही था..बात कुछ औरही थी...! आप अपनी मेडिसिन की पढाई कर रहे थे तब...!"

जवाब मे वो बोले: " बिल्कुल सही...! मुझे याद है...!"

मै: " लेकिन मै हैरान हूँ,कि, आपने इतने सालों बाद मुझे पहचाना...!२० साल से अधिक हो गए...!"

उत्तर:" अजी...आप को कैसे भूलता...! उस दोपहर भोजन करते समय, मुझे लग रहा था,कि, मेरे मुँह पे ज़रूर कुछ काला लगा है...जो आप तीनो इस तरह से हँस रही थी...!"

खैर ! हम लोग जम के बतियाने लगे....भाषा के असमंजस पे होने वाली मज़ेदार घटनायों का विषय चला तो ये जनाब ,जो अब मशहूर अस्थी विशेषग्य बन गए थे, अपनी चंद यादगारें बताने लगे...

डॉक्टर: " मै नर्सिंग कॉलेज मे पढाता था, तब की एक घटना सुनाता हूँ...एक बार, एक विद्यार्थिनी की नोट्स चेक कर रहा था..और येभी कहूँ,कि, ये विद्यार्थी, अंग्रेज़ी शब्दों को देवनागरी मे लिख लेते थे..नोट्स मे एक शब्द पढा,' टंगड़ी प्रेसर'...मेरे समझ मे ना आए,कि, ये टांग दबाने का कौन-सा यंत्र है,जिसके बारे मे मुझे नही पता...!
कौतुहल इतना हुआ,कि, एक नर्स को बुला के मैंने पूछ ही लिया..उसने क़रीब आके नोट्स देखीं, तो बोली, 'सर, ये शब्द 'टंगड़ी प्रेसर' ऐसा नही है..ये है,'टंग डिप्रेसर !' "

आप समझ ही गए होंगे...ये क्या बला होती है...! रोगी का, ख़ास कर बच्चों का गला तपास ते समय, उनका मुँह ठीक से खुलवाना ज़रूरी होता है..पुराने ज़माने मे तो डॉक्टर, गर घर पे रोगी को देखने आते,तो, केवल एक चम्मच का इस्तेमाल किया करते..!हमलोगों का हँस, हँस के बुरा हाल हुआ...और उसके बाद तो कई ऐसी मज़ेदार यादेँ उभरी...शाम कब गुज़र गयी, पता भी न चला..!

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ६

अपने बचपन की एक यादगार लिखने जा रही हूँ...! या तो रेडियो सुना करते थे हम लोग या रेकॉर्ड्स......हँडल घुमा के चावी भरना और "his master's voice" के ब्रांड वाले ग्रामोफोन पे गीत सुनना...

एक रोज़ मैंने अपनी माँ से सवाल किया,
"अम्मा ! अपने कुए के पास कोई जल गया?"

अम्मा: " क्या? किसने कहा तुझसे...?कोई नही जला...! " मेरी बात सुनके, ज़ाहिरन, अम्मा काफ़ी हैरान हुईं !
मै : "तो फिर वो रेडियो पे क्यों ऐसा गा रहे हैं.....वो दोनों?"
अम्मा: " रेडियो पे? क्या गा रहे हैं?" अम्मा ने रेडियो की आवाज़ पे गौर किया...और हँसने लगीं...!

बात ही कुछ ऐसी थी...उस वक़्त मुझे बड़ा बुरा लगा,कि, मै इतनी संजीदगी से सवाल कर रही हूँ, और माँ हँस रही हैं...!
हमारे घर के क़रीब एक कुआ मेरे दादा ने खुदवाया था।उस कुए का पानी रेहेट से भर के घर मे इस्तेमाल होता था... उस कुए की तरफ़ जाने वाले रास्ते की शुरू मे माँ ने एक मंडवा बनाया था...उसपे चमेली की बेल चढी हुई थी... अब तो समझने वाले समझ ही गए होंगे, कि, मैंने कौनसा गीत सुना होगा और ये सवाल किया होगा...!
गीत था," दो बदन प्यार की आग मे जल गए, एक चमेली के मंडवे तले..."!

अम्मा: " अरे बच्चे...! ये तो गाना है...! "
मै: " लेकिन अगर उस मंडवे के नीचे कोई नही जला तो, दो बदन जल गए ऐसा क्यों गा रहे हैं, वो दोनों?"
अम्मा: "उफ़ ! अब मै तुझे कैसे समझाऊँ...! अरे बाबा, वो कुछ सच मे थोड़े ही जले...तू नही समझेगी..."
मै:" प्यार की आग, ऐसा क्यों गा रहे हैं? ये आग अपने लकडी के चूल्हेकी आग से अलग होती है ? उसमे जलने से मर नही जाते? और जलने पर तो तकलीफ़ होती है..है ना? मेरा लालटेन से हाथ जला था, तो मै तो कितना रोई थी... तो ये दोनों रो क्यों नही रहे...? गा क्यों रहे हैं? इनको तकलीफ नही हुई ? डॉक्टर के पास नही जाना पडा? मुझे तो डॉक्टर के पास ले गए थे...इनको इनकी माँ डॉक्टर के पास क्यों नही ले जा रही...? "

मेरी उम्र शायद ५/६ साल की होगी तब...लेकिन, ये संभाषण तथा सवालों की बौछार मुझे आज तलक याद है...
कुछ दिन पूर्व, अपने भाई से बतियाते हुए ये बात निकली तो उसने कहा,
" लेकिन आपको इतने बचपनमे 'मंडवे' का मतलब पता था? मुझे तो बरसों 'मंडवा' किस बला को कहते हैं, यही नही पता था...!"

कुछ ही साल पूर्व की एक बात याद आ रही है...एक ग़ज़लों-गीतों की महफिल मे जाना हुआ...गानेवाली हस्ती काफ़ी मशहूर थी ...मेरे कानों पे चंद अल्फाज़ पड़े,तो मैंने अपने साथ बैठी सहेली से पूछा," ये क्या गा रहा है...? गीत के बोल तुझे ठीक से सुनायी दे रहे हैं?"
सहेली: "हाँ..! तुझे नही दे रहे?"
मै :" बता तो क्या सुनाई दे रहे हैं..."
हम दोनों की बेहद धीमी आवाज़ मे खुसर पुसर हो रही थी...
सहेली:" ' प्यार परबत तो नही है मेरा लेकिन...' ये मुखडा है..."
मै :" क्या बात करती है...? ऐसा गा रहा है...? अरे ये तो कितने सालों तक मै समझती थी...एक दिन गीत के अल्फ़ाज़ बड़े ध्यान से सुने तो समझी कि, सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...! "
सहेली :" तो सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...?" मोह्तरेमा काफ़ी हैरान हुई...!

मै :" 'प्यार पर बस तो नही है मेरा लेकिन..' गीत का मुखड़ा इस तरह से है...! मेरा तो ठीक है..मै समझती थी, कि, प्यार पर्वत जितना महान नही है, फिरभी...प्यार करुँ या ना करुँ, इस तरह से कुछ मतलब होगा..लेकिन ये महाशय तो पेशेवर गायक हैं...! "
सहेली :" अरे बाबा...मै तो आजतक 'परबत ' ही समझती चली आ रही थी...!"

क्रमश

शनिवार, 2 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ५


कई किस्से ऐसे हैं, जो मै कभी लिख नही पाऊँगी...! कहना कुछ चाह रही थी, और कहा कुछ...! वो भी भरी महफिल मे!सुनने वाले तो पेट पकड़ के हँस रहे थे, और मुझे लग रहा था, कि, ज़मीं मे गड़ जाऊँ! तो ऐसी बातों को छोड़ के आगे बढ़ती हूँ...!