रविवार, 31 मई 2009

बोले तू कौनसी बोली..? १

"मेरे घरमे भूत है," ये अल्फाज़ मेरे कानपे टकराए...! बोल रही थी मेरी कामवाली बाई...शादीका घर था...कुछ दिनों के लिए मेरे पडोसन की बर्तनवाली,मेरे घर काम कर जाती...मेरी अपनी बाई, जेनी, कुछ ही महीनों से मेरे यहाँ कामपे लगी थी...उसी पड़ोस वाली महिला से बतिया रही थी......
एक बेटीकी माँ, लेकिन विधवा हो गयी थी। ससुराल गोआमे था..मायका कर्नाटक मे...एक बेहेन गोआमे रहती थी...इसलिए अपनी बेटीको पढ़ाई के लिए गोआ मे ही छोड़ रखा था...

मै रसोईको लगी बालकनी मे कपड़े सुखा रही थी...ये अल्फाज़ सुने तो मै, हैरान होके, रसोई मे आ गयी...और जेनी से पूछा," क्या बात करती है तू? तूने देखा है क्या?"

"हाँ फिर!" उसने जवाब मे कहा...

"कहाँ देखा है?" मैंने औरभी चकरा के पूछा !

"अरे बाबा, पेडपे लटकता है..!"जेनी ने हाथ हिला, हिला के मुझे बताया...!

"पेडपे? तूने देखा है या औरभी किसीने?"मै।

जेनी :" अरे बाबा सबको दिखता है...सबके घर लटकता है...! पर तू मेरेको ऐसा कायको देखती? तू कभी गयी है क्या गोआ?"

जेनी हर किसीको "तू" संबोधन ही लगाया करती..."आप" जैसा संबोधन उसके शब्दकोशमे तबतक मौजूद ही नही था.....!
मै:" हाँ, मै जा चुकी हूँ गोआ....लेकिन मुझे तो किसीने नही बताया!"

जेनी :" तो उसमे क्या बतानेका? सबको दिखता है...ऐसा लटका रहता है...." अबतक, मेरे सवालालों की बौछार से जेनी भी कुछ परेशान-सी हो गयी थी..

मै:" किस समय लटकता है? रातमे? और तुझे डर नही लगता ?" मेरी हैरानी कम नही हुई थी...वैसे इतनी डरपोक जेनी, लेकिन भूत के बारेमे बड़े इत्मीनान से बात कर रही थी..जैसे इसका कोई क़रीबी सबंधी, रिश्तेदार हो!

"अरे बाबा...! दिन रात लटकता रहता है...पर तू मेरे को ऐसा क्यों देख रही है? और क्यों पूछ रही है...?ये इससे क्या क्या डरने का ....?" कहते हुए उसने अपने हाथ के इशारे से, हमारे समंदर किनारेके घरसे आए, नारियल के बड़े-से गुच्छे की और निर्देश किया!
जेनी:"मै बोलती, ये मेरे घरमे भूत है...और तू पूछती, इससे डरती क्या??? तू मेरेको पागल बना देगी बाबा..."

अब बात मेरी समझमे आयी.....! जेनी "बहुत" का उच्चारण "भूत" कर रही थी !!!

उन्हीं दिनों मेरी जेठानी जी भी आयी हुई थीं..और ख़ास उत्तर की संस्कृति....! उन्हें जेनी का "तू" संबोधन क़तई अच्छा नही लगता था....!देहली मे ये सब बातें बेहद मायने रखतीं हैं...!
एक दिन खानेके मेज़पे बैठे, बैठे, बड़ी भाभी, जेनी को समझाने लगीं....किसे, किस तरह संबोधित करना चाहिए...बात करनेका सलीका कैसा होना चाहिए..बड़ों को आदरवाचक संबोधन से ही संबोधित करना चाहिए...आदि, आदि...मै चुपचाप सुन रही थी...जेनी ने पूरी बात सुनके जवाबमे कहा," अच्छा...अबी से ( वो 'भ"का भी उच्चारण सही नही कर पाती थी) , मै तेरे को "आप" बोलेगी.."

भाभी ने हँसते, हँसते सर पीट लिया....!
जेठजी, जो अपनी पत्नीकी बातें खामोशीसे सुन रहे थे,बोल उठे," लो, और सिखाओ...! क्या तुमभी...१० दिनों के लिए आयी हो, और उसे दुनियाँ भर की तेहज़ीब सिखाने चली हो!!!!"

क्रमश:

( शायद मेरे अज़ीज़ पाठक, जो मुझे कुछ ज़्यादाही गंभीर और "दुखी" औरत समझने लगे थे, उनकी कुछ तो "खुश" फ़हमी या "ग़लत" फ़हमी दूर होगी...असलियत तो ये है,कि, मै बेहद हँसमुख हूँ... और शैतानी के लिए मशहूर हूँ...अपने निकट परिवार और दोस्तों मे! )

गुरुवार, 28 मई 2009

नेकी कर, कुएमे डाल ! ६

"सखी, जानती हूँ, मेरे लिखेमेसे तुम कुछभी नही पढ़नेवाली...लेकिन यही एक तरीक़ा नज़र आ रहा था, तुमसे अंतरंग खोलके बतियानेका....हम बरसों अपनी दोस्तीका जनम दिन मनाते रहे...कभी नही सोचा था मैंने कि , तुमसे बात करना एक दिन असंभव हो जायेगा...तबतक, जबतक, तुम ना चाहो.....!मै बता नही सकती,कि, मन कितना कचोटता है...के, ये सब कितना अविश्वनीय-सा लगता है...लेकिन पिछले कुछ अरसेसे, अविश्वसनीय घटनायों का मानो, एक सिलसिला-सा बन गया है...!

"उस रात, स्वागत समरोह्के पश्च्यात, तुम मेरे कमरेमे बैठ बोहोत रोयीं...तुम्हें मुझसे बेहद शिकायत थी...इस बातकी ,के, मैंने "उस" सहेलीको अपमानित क्यों नही किया...वोभी सबके सामने! के तुम्हें, किसीसे कोई अपमानजनक बात सुन लेनेकी आदत नही थी...कि, जिस समारोहका वो हिस्सा होगी, वहाँ,तुम कभी नही आओगी....के उसे कह दूँ, वो मेरे सारे आयोजनेसे बाहर हो जाए...चली जाय अपने घर......!

"बात तो बेहद बचकानी-सी थी...तुमने मेरे कमरेकी चाभी उसके हाथ नही पकडाई..लेकिन उसके सामने, किसी अन्य के हाथ...! उसने तो मज़ाक़ ही , मज़ाक़ मे कह दिया,'अब तो पकडानी पड़ी न...तो मुझेही पकडा देतीं...मै तो इस परिवारको तुम्हारे छ: साल पेहेलेसे जानती हूँ!'
"इतनी-सी बातपे तुम बिफर पड़ीं...साथवाले कमरेमेसे वो सब सुन रही थी..लेकिन तुम्हें परवाह नही थी...तुमने ये तक कह दिया कि, मुम्बई हवाई अड्डे से तुम अपने पतीके साथ सीधे अपने शेहेर की ओर रवाना हो जाओगी..तथा, मेरे पुत्र की शादी मेभी शामिल नही होगी, गर,'वो' शामिल होनेवाली हो तो..!मेरे पुत्रकी शादीकी बात कहीँ हवामेभी नही थी...!

"मैंने तुमसे कहा,'ठीक है, मैभी तुम्हीँ लोगोंके साथ, तुम्हारेही शेहेर चलती हूँ...मुम्बई मे होनेवाले, दो अलग,अलग,स्वागत समरोह्की पूरी तैय्यारियाँ तो होही चुकी थीं...लड़कीकी मासी, नानी, पिता, मोर्चा सँभाल लेंगे!'....तुम्हें मै ऐसी मनास्थितीमे कैसे छोड़ सकती थी..हैना?

"तुमने कहा,कि, मै ब्लैक मेल कर रही हूँ...बल्कि, वैसा नही था...तुम गर नही रुकती, तो मै तुम्हारे साथ,तुम्हारे शेहेर चलीही जाती...
हर उस व्यक्तीने ,जिसने तुम्हारी बातें सुनी, उन्हें वो बेहद बचकानी और अपरिपक्व लगीं...लेकिन मैंने तुम्हारा साथ दिया और, उस सहेलीकी समझदारीपे विश्वास किया...जानती थी, कि, उसमे वो परिपक्वता है...खैर, तुम उन लोगों के साथ मुम्बई लौटके मेस मे नही रुकीं...जबकि, मेरे अपने माता-पिता, तथा अन्य सभी, दोस्त रिश्तेदार वहीँ रुके थे...तुम्हें मै अपने घर ले आयी...

जिस दिन शाम हम, मुम्बई पहोंचे, उसकी अगली शाम एक छोटा -सा समारोह, करीबी लोगोंके लिए आयोजित किया था...तुम अपनी जान पहचान की हेयर ड्रेसर के पास बिटियाको ले गयीं...उसने सुंदर केशसज्जा कर दी...

मैंने दूसरे दिनके, अधिक बड़े स्तरपे रखे स्वागत समारोह्के लिए, उसी होटलमे, सुबह्से दो कमरे बुक कर लिए थे...सुबह वहीँ पहोंच,आरामसे, नहा धो तैयार होके, नीचे समरोह्की जगेह्पे शांती से चले जानका इरादा था.... बिटियाभी घरके शोर-गुलसे बाहर निकलना चाह रही थी, अमरीका मे रहते, रहते, इस तरह के भारतीय माहौल की आदत, उसके लिए ख़त्म-सी हो गयी थी,जो माहौल मुझे बेहद भाता था......आसपास खूब लोग हों..खुले दरवाजें हों, मेरे घरके, हर वक्त एक सुंदर मिलन की बेला हो !.........
लेकिन, इसकी केशसज्जा बिटियाको भा गयी...उसने,शाम वहीँ जाके पहले केशसज्जा कर,फिर आयोजनके स्थलपे जानेकी ठान ली....मैंने बार, बार कहा, कि, उस पार्लर मे एक बार फोन करके appointment पक्की कर लेनी चाहिए...पर तुम्हें पूरा भरोसा था,कि, तुम्हें देखतेही वो बिना किसीपूर्व सूचनाके, बिटियाके बाल सँवार देगी....लेकिन ऐसा नही हुआ..जब हम वहाँ पोहोचे तो उसने साफ़ कह दिया,'देखते नही मै इस वक्त किसी ओरके बाल सेट कर रही हूँ...मुझे कमसे कम ४०/५० मिनट और लगेंगे..!'

"अब मै ऊँची नीची होने लगी...उस जगेह्से आयोजनका स्थल डेढ़ घंटेके फासलेपे था....गाडी तो एकही थी...ना मै आगे निकल सकती थी, ना उसे पीछे छोड़ सकती थी...अजीब असमंजस की अवस्था थी...घड़ी, टिक,टिक करते आगे बढ़ती जा रही थी...मेरे पतीके मुझे तीन बार फोन आ चुके, कि,हमारा आयोजन स्थलपे प्रस्थान हुआ या नही....!
अंतमे हमने सीधे आयोजनके स्थलपे प्रस्थान किया...भारत क्या, जगप्रसिद्ध होटल था..लेकिन वहाँ उस दिन हेयर dresser आयी नही थी....! उस कामको जिस व्यक्ती पे सौंपा था,जैसे कि, वहाँ के ऐसे सारे इन्तेज़ामात, वो व्यक्ति तो अपने घरसेही नही निकला था..उसे पोहोचनेमे अभी एक घंटा और था!!

अब मेरी बिटिया मुझपे बिगड़ गयी...जबकि, मेरी कोई कहीँ गलती नही थी...वो तो बिटियाकी चचेरी बेहेनने बड़े डरते,डरते, उसका जूडा बना देनेका काम हाथमे लिया..साडीभी उसीने पहनाई...मुझे एक के बाद एक बुलावे आते जा रहे थे...तुंरत नीचे चली आओ...खैर, मै नीचे पोहोंच गयी...अपने आपको भरसक शांत रखा....वैसेभी ऐसे मॉकों पे अपना संतुलन खोके कुछ हासिल नही होता....मेरी बेहेन को ज़रूर दुःख हुआ, जिस तरहसे बिटिया बिगड़ पड़ी, क्योंकि उसमे मेरा कहीँ भी , कुछभी दोष नही था...

स्वागत समारोह शुरू होनेके बाद तो ठीक ठाक होही गया...उसके अगले दिन बिटिया अपने ससुराल लौट गयी...और तुम अपने घर....शादीका घर धीरे,धीरे खाली होने लगा....

उसके बाद, तुम्हारेही शेहेरमे आयोजित, महाराष्ट्र राज्य पुलिस गेम्स का आयोजन...मुम्बैई मे पुस्तकोंका प्रकाशन , तो दूसरी ओर हमारी अपने घरकी खोज...और अंतमे हमारा ,पतीके अवकाश प्राप्ती के बाद ,पुनेमे प्रस्थान..
और फिर मेरे जीवन घटी चंद अवांछित घटनायों का सिलसिला...मै भी, अपनेआपमे, शारीरिक और मानसिक रूपसे बेहद थक चुकी थी...

शादी के बाद, बिटिया दो बार आयी...और अन्तिम बार जब UK से आयी ,तो मुझे एक बात उसने UK लौटके बताई," मासी तुमसे अब सम्बन्ध रखना नही चाहतीं ...उनका कहना है,कि, वो अब किसी अन्य का तनाव बर्दाश्त करना नही चाहतीं"...
ये दोषारोपण मुझपे था...जबकि, इन पिछले दिनों, मेरे घरपे तुम्हारी और तुम्हारे परिवारकी एकही बार मुलाक़ात हुई थी...उस दिन मुझे बेहद सर दर्द था...और आँखों से बेसाख्ता आँसू बह रहे थे...वो वाक़ई मे शारीरिक तकलीफ से बहे आँसू थे...

"मैंने जब अपनी बिटियाके मूहसे ये बात सुनी, तो कुछ पल मुझे विश्वासही नही हुआ...! लेकिन ये सच था...तुमने मेरे सहज, हालचाल पूछ्नेके मक़सद से किए फोन्स काभी पलटके जवाब देना बंद कर दिया था...क्या ये वही तुम थीं, जिसकी खातिर मैंने, पूरे शेहेरको एकतरफ कर दिया था...जिसे , वो ग़लत होते हुएभी,मै पल,पल सहारा देती रही थी?..कभीभी अवहेलना नही की थी?..क्या तुम वहीँ थीं, जिसे अपनी दोस्तीपे हर दूसरे रिश्तेसे बढ़के नाज़ था?

बिटियाने मुझे ये बात फोनपे बताई..UK जानेके बाद...दिलपे क्या गुज़री उसका क्या बयाँ करूँ? नही करूँ,तो बेहतर...लेकिन मैंने एक sms तुम्हें भेज दिया...उसमे लिखा,' आजतक तुम्हें मेरी वजहसे जोभी मानसिक तनाव झेलने पड़े, उसकी तहे दिलसे क्षमा माँगती हूँ...तुमने जो मुझे सहारा दिया उसकी बेहद शुक्रगुजार हूँ..नही चाहती,कि, तुम्हारी ज़िन्दगीमे मेरे कारण तनाव महसूस हो...इसलिए, तुम्हारा हर contact नम्बर मैंने डिलीट कर दिया...उसी तरह, तुम मुझे,अपने जीवन से डिलीट कर दे सकती हो....मिटा सकती हो'...

पता नही,कि, मिटाया या नही...जानती, हूँ, फिलहाल, तुम्हारा जीवन फिर एकबार तेज़ रफ़्तार हो गया है...शायद, कभी किसी अकेले,एकांत पलमे मेरी याद आ जाय...! क्योंकि, मेरे हाथसे बनी चीज़ों से तुम्हारा घर भरा पडा है....या, तुमने, उन्हें भी हटा दिया, कह नही सकती....

"जब ये लिखा तो आँखें भर, भर आतीं रहीं.....२१ सालोंका साथ, सुख दुखका बँटवारा ...कम नही होता...टूटनेमे एक पल नही लगा..इस बातको २ माह्से अधिक समय हो गया...बोहोत कुछ खोया, उसमेसे ये भी एक बेहद बड़ा सदमा था...
तुमसे ऐसे जुदा होके लगता है, मेरी ज़िन्दगीका एक बेहद सुंदर अध्याह ख़त्म हो गया....खुश रहो सदा, यही दुआ देती हूँ..बोहोत कुछ पीछे छूट गया...जिसे सँजो के रखा था...हाथसे छिन गया....ज़िंदगी, जैसे,जैसे आगे बढ़ रही है, रिश्ते, दोस्तीके हाथ छुडा रहे हैं....

वो दिनभी यादों मे बसे हैं, जब तुम मुझसे दिनमे कमसे कम एकबार बात ना करलो,तुम्हें चैन नही आता था.....अब हरेक उस तनाव से, जो मेरे कारण तुम्हें हो सकता था, तुम आज़ाद हो..और इतने सदमे झेले उनमेसे येभी इक, यही तसल्ली कर लूँगी....
२८ मई थी, जिस दिन हम पहली बार मिले थे...तुम्हें,अब याद हो ना हो, वो दिन मेरे मनपे अंकित है.."

समाप्त

शनिवार, 23 मई 2009

नेकी कर, कुएमे डाल ! ५

इस सखीसे मन करता है, सीधे बात करूँ...एक संवाद, जैसे अपनी बेटीसे करती रहती हूँ...वो सुने ना सुने...

" मेरे बच्चे तुम्हें 'मासी' कहते थे...! तुम्हें कितना अच्छा लगा ये संबोधन, खासकर उस वक्त, जब मैंने इसका अर्थ तुम्हें बतलाया...माँ जैसी...! मराठी भाषा मे एक कहावत है,चाहे माँ मर जाय पर मासी जिए...! मासी को बेहेनकी ऑलाद और बच्चों को अपनी मासी इतनी अधिक प्यारी होती है!

मेरी बिटिया के ब्याह के समय तुम कुछ दिन मेरे पास आके रूकीं... मुझे बेहद अच्छा लगा...उसका ब्याह उसके ससुराल के शेहेरमे होना था...मेरी एक अन्य सहेली और तुम शामकी उडानसे वहाँ पोहोंचने वाले थे..मै, मेरेपती, तथा बेटा और बेटी सुबह की उडानसे पोहोंच गए...

मेरे माता पिता पुनेसे निकले.... हवाई जहाज़ स,उनके साथ मैंने राजू और उसकी पत्नी को भेजा......भाई भाभी, उनके बच्चे और मित्रपरिवार रेलसे निकले..कुछ और नज़दीकी दोस्त-रिश्तेदार भी अलग, अलग उडानों से पोहोंचते रहे....सभीका इंतेज़ाम एकही कैम्पस मे था...लेकिन कैम्पस बोहोत बड़ा था...

तुम जिस सहेलीके साथ थी....तुम्हारे मुताबिक़, वो तुम्हारे ही साथ रहना चाह रही थी..और तुमभी..तुम्हें फ़क़्र था,कि, जोभी तुमसे मिलता है, तुम्हारा ही साथ चाहता है...उसी दिन, जिस दिन तुम दोनों भी पोहोंची, रातमे एक छोटेसे भोजनका आयोजन था...

भोजन स्थलपे तुम्हें मैंने जींस पहेने देखा,तो पूछा,"अरे, ये क्या? जींस क्यों पेहें लीं? तुम्हें तो खूब सजना सँवरना था? "
तुम्हारा उत्तर," अरे बाबा ! इसने( तुमने उस सहेलीकी ओर इंगित करते हुए कहा),मुझे ठीकसे तैयार ही नही होने दिया...बोली, क्या ज़रूरत है...चलो ऐसेही..देर हो रही है॥!"
मैंने कहा," तो क्या..तुमने कहना था, कि, तुम तैयार होना चाहती हो...रुक जाए १० मिनट॥! खैर! आइंदा, कोई तुम्हें टोके,तो ज़रूर कहना,कि, तुम्हें ठीकसे साडी ज़ेवर डालना पसंद है...और वैसाही करना!"

उस सहेलीको मै, सन ८२ स जानती थी...सन ८८ मे उसके पतीका देहांत हो गया था, जोकि, हमारा बेहद क़रीबी दोस्त था...जबकि, ये सच है, तुम्हें उसके छ: साल बाद मिली...लेकिन, हरेक दोस्तकी अपनी एक जगह होती है...ये अधिक प्यारा या दूसरा कम प्यारा ऐसा नही होता...हम कई बातें, किसी एक व्यक्तीसे कह सकते हैं, जो अन्य स नही कह पाते..इसका ये मतलब नही,कि, वो हमें प्यारा नही...

खैर ! ज़ाहिरन, मै बेहद व्यस्त थी...आयोजन हम पती-पत्नीके जिम्मे था...और मेरे पती केवल दोही दिन पहले मुम्बई पधारे थे...विदर्भ( नागपूर) महाराष्ट्र की सर्दियों मे राजधानी होती है.. वे वहाँ थे..आधेसे अधिक औपचारिकताएँ मुझे निभानी थीं...चाहे वो मुम्बई मे हों या कहीँ और..निमन्त्रितों की फेहरिस्त बनाके, कब, किसे, कौन पत्रिका देगा, ये सब बारीकियाँ मुझेही देखनी सोचनी थीं...कोई रह ना जाए...

जोभी हो, मेरे मायकेसे आए, हर व्यक्तीका ख़याल, व्यक्ती गत रूपसे मै नही रख सकती थी ....ये बात नामुमकिन थी..... ...लेकिन, हरेक का रहने-रुकनेका इंतेज़ाम करते समय( जबकि मैंने वो जगह ख़ुद इससे पूर्व नही देखी थी), मैंने ध्यान रखा था, कि, कौन किसके साथ रुकेगा...मतलब किसके कमरे किसके साथ लगे हों...इसलिए,कि, उन्हें अकेला पन महसूस ना हो, और ज़रूरत के समय साथवाला हाज़िर रह सके...सभीने मेरी इस दूरन देशी की सराहना की...

मेससे कब,कौन,किसके साथ, भिन्न भिन्न समारोहों के आयोजन स्थल पे जाएगा...उन कारों के नंबर तक मैंने ३/४ दोस्त रिश्तेदारों के हवाले कर दिए थे...ऐसा न हो,कि, किसीकी किसीके साथ बनती/पटती नही, और उसे ज़बरन, उसी व्यक्तीके साथ आयोजन स्थलपे जाना पड़ जाय!

बिटियाके ससुराल वालेभी हर इंतेज़ाम स खुश थे...उनके मेहमानों कोभी उसी कैम्पस मे ठहराया गया था...उनके आगत स्वागत के लिए हमें हाज़िर रहना ज़रूरी था...!

ब्याह्की पूर्वसंध्याको मंगनी की विधी थी..अगले दिन तडके मुहूर्त था...वैदिक विधी का...दोपेहेरमे भोजन...उसी स्थान पे...उसके बाद, हमें अपनी मेस मे लौट,दुल्हन को तैयार कर, उसके ससुराल, गृह प्रवेशके लिए ले जाना था...खुदभी तैयार होना था....उसके पश्च्यात उनकी ओरसे स्वागत समारोह! गृह प्रवेशके बारेमे, जब मैंने पता किया, तब इत्तेला मिली...उस सम्बंधित इ-मेल मुझे मिलीही नही थी !

गृह प्रवेश के बाद उसकी ससुराल की ओरसे स्वागत समारोह था...जहाँ ब्याह हुआ, उस जगहसे, जहाँ हम रुके थे, एक घंटे का फासला था...और फिर हम जहाँ रुके थे, वहाँ से बिटियाका ससुराल २ घंटों के फासलेपे...और फिर आगे स्वागत समारोह! उसके पश्च्यात वधु वर के रहनेका इंतेज़ाम वापस उसी मेस के एक हिस्सेमे...उस कमरेतक तो मै चाह्केभी पहोंच नही पायी..उसकी साज सज्जा की ज़िम्मेदारी मैंने अन्य किसीपे सौंप दी...!

स्वागत समारोह मे अचानक तुम, बेहद गुस्सेमे, रोते हुए, मेरे पास पोहोंच गयीं..और मेरी उसी सहेलीके बारेमे शिकायत करने लगी..मैंने मज़ाक मे कह दिया,'अरे, छोडोभी ना ! क्यों, ऐसा बचपना कर रही हो..ऐसा कभी कर सकती हूँ मैं?"

तुम्हारी इच्छा थी,कि, मै उस सहेलीको सबके सामने डांट लगा दूँ ! वजेह क्या...ये तो सब बारीकियाँ मुझे बादमे पता चलीं...जब रात मे तुम मेरे कमरेमे आ गयीं और,और उस सहेली के कानों तक पोहोंचे, इसतरह से शिकायत करने लगीं...शिकायत तो तुम्हें मुझसेभी थी,कि, मैंने उसे डांटा नही....!"

क्रमश:

मंगलवार, 19 मई 2009

नेकी कर, कुएमे डाल ४

हमारे विदर्भ आनेसे पूर्व, मेरी इस सहेलीके भतीजेने कोर्ट मे एक याचिका दायर कर दी थी। याचिका थी ...उसे स्कूल के बोर्ड ऑफ़ directors पे ले लिया जाय। वजेह ये,कि, उसके पिता ( मतलब मेरी सहेलीके भाई) उसपे थे। उनकी ह्त्या के बाद एक पद खाली हो गया। अन्य विश्वस्त ये नही चाहते थे। कारण ज़ाहिर था...उसपे किसीका अधिक विश्वास नही था। केस चलते,चलते ही हमारा विदर्भ मे तबादला हुआ। उस वक्त हमें उसी शेहेरमे, जहाँ हमलोग, बच्चे स्कूल मे थे,रह चुके थे, दोबारा, चंद महीनोंके लिए तबादलेपे आना हुआ था।

बिटिया उन दिनों अमेरिका जानेकी तैय्यारीमे लगी हुई थी। ज्यादातर मुम्बईमे रहती थी..बेटा तो पुनेमे पढाई पूरी कर रहा था...

हम दोबारा उसी शेहेर आए, तो मेरी सहेली काफ़ी खुश हो गयी। लेकिन स्कूल के इस मुक़द्दमे को लेके उसे परेशानी उठानी पड़ रही थी। उसका पती चूँकि एक विश्वस्त था, तथा बेहनोयीभी, उन्हें अक़्सर ज़िला न्यायलय के चक्कर काटने पड़ते।

दूसरी ओर, जिन पुलिस के अफसर उसके भाईके ह्त्या का केस देख रहे थे,वे उस भतीजेके काफ़ी करीब थे। इस अफसरकी पत्नी तथा इस भतीजेकी पत्नी, एकही क्लास मे पढ़ा करते थे। बल्कि, दुनियाँ छोटी होती है, ऐसा जो कहते हैं, इस बातका फिर न जानूँ कितवी बार मुझे अनुभव हुआ! !!
बात ये,कि, भतीजे की पत्नी निकली मेरी एक क्लास तथा हॉस्टल मेटकी भाईकी बेटी..! खैर, उस महिला के साथ तो, मेरी शादी के पश्च्यात कोई संपर्क रहा ही नही था...अस्तु.....

मै कई बार, इस पुलिस अफसरकी पत्नीसे , जो मेरी बोहोत इज्ज़त करती थी, इस सहेली के बारेमे चर्चा करती। ज़ाहिरन, उसे अपनी सहेली के पतीपे अधिक विश्वास होता। चर्चा केस को लेके तो होती नही...उसमे किसी तरीक़ेकी दख़ल अंदाज़ी का तो ,मेरी ओरसे, सवालही नही उठता था। लेकिन उसके अपने बच्चे इसी स्कूल मे पढ़ते थे।
सारे शेहेरमे इस केस को लेके चर्चे चल रहे थे। इस भतीजे की, अपने पिताकी तरह ,पोहोंच काफ़ी " ऊंची" थी...

उस परिवारकी पार्श्वभूमी को देखते हुए, इस सहेलीको तक़रीबन विश्वास था, कि, केस उसके के हक़ मे नही जायेगा...ऐसा" आवारागर्दी" करनेवाला कैसे स्कूल का विश्वस्त बन सकता है? लेकिन मेरे मनमे अपनी अलग शंकाएँ थीं...खैर !

हमारा तबादला तो विदर्भमे होही गया...वहीँ रहेते रहते,( मेरी बेटीके जानेके पश्च्यात), इस सहेली का एक दिन फोन आया," केस भतीजा जीत गया था...उसे विश्वस्त बना लिया गया था..."
स्कूल की ओरसे उच्च न्यायलय मे पुनश्च अपील की जा सकती थी...लेकिन,इस दरमियान उसका भतीजा ,उसके घर पोहोंचा और बडीही अदबसे उसे बोला,"बुआ, जो पीछे हुआ उसे भूल जाओ..मै आपकी बोहोत इज्ज़त करता हूँ...आप स्कूल मे काम जारी रखो।"

एक अन्य परिचित, जो हमें, तथा इन दोनों परिवारों से वाक़्फ़ियत रखते थे...उन्हों ने भी सलाह दी,कि, जब लड़का कह रहा है,कि, सब भूल जाओ..मेरे मनमे कुछ नही..मुझे एक मौक़ा दिया जाय.. ..तो क्यों नही?
उस परिचित के खयालसे तो वो बोहोत ही अच्छा लड़का था...वो उसे बचपनसे जानते थे...जब कि,ये उम्रदराज़ जनाब अच्छे खासे नामी गिरामी वकील थे...और अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे...खैर ! अपनी, अपनी धारणाएँ बन जाती हैं..सो उनमेसे यही एक..

फोन पे बात करते समय,मुझे मेरी सहेलीने ये सब बातेँ बतला दीं...येभी पूछ लिया कि, मेरा क्या विचार है...पूछा,तो मैंने साफ़,साफ़ बताया," मेरे विचारसे अब तुमने अपना इस्तीफा पेश कर देना चाहिए..या तो उच्च न्यायालय मे अपील कर देनी चाहिए..."

ये बात उसे बताते समय,मुझे ख़ुद बडाही अफ़सोस हो रहा था...जानती थी,कि, इस स्कूल को प्रगती पथपे लानेमे इसने कितनी अधिक मेहनत की है..ये स्कूल उसका मानो एक अपत्य था...उसे स्कूलसे बेहद लगाव था..स्कूल छोड़, किसी अन्य ज़िंदगी की वो कल्पनाभी नही कर सकती थी...

पर जवाबमे उसने कहा," अब मेरे पतीमे इतनी हिम्मत नही कि, हर दूसरे दिन मुम्बई दौडें..दुकानपे असर पड़ता है..फिर इतनी दौड़ भाग करकेभी निश्चिती तो नही,कि, फैसला हमारी तरफसे होगा...फिर उस लडकेने माफी भी माँग ली थी...और मुझे , एक मुख्याध्यापिका ही नही, बल्कि, प्रायमरी विभाग की director बनाना चाहता है...."

मेरा जवाब था," तो ठीक है..तुम्हें ये ठीक लगता है, तो ऐसाही करो..मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं..."
इसके आगे मै क्या कहती?

कुछ दिन और गुज़रे...दो तीन बार हम दोनोकी बात चीत भी हुई...सहेली ज़रा दुविधामे पड़ गयी थी.....क्योंकि अब उसे ये नही समझमे आ रहा था,कि, उसकी अधिकार कक्षा क्या है ! !बल्कि, ज़ाहिर हो रहा था,कि, अधिकार कक्षा तो कुछ हैही नही...लेकिन, वो लड़का दिलासा देता रहता..."कुछ दिन रुको,मै सब कुछ "chalk out "कर दूँगा"!
मैंने खामोश रहना शुरू कर दिया था.....

और एक दिन,देर रात सहेलीका फोन आया..इतनी रात गए जब फोन आया तो मेरा मन धकसे रह गया...तबतक मेरे पती BSF join कर चुके थे..कश्मीर मे चुनाव चल रहे थे...
फोन पे उसने कहा," मुझे देर रात स्कूल मे बुलाके, पिस्तौल दिखाके, स्कूल से इस्तीफेपे हस्ताक्षर करा लिए गए..मेरे सारे कागज़ात, जैसे डिग्री के तथा अन्य सब, स्कूल मेही पड़े रह गए...उसने रात को इसतरह से बुलाया जैसे, कुछ आवश्यक काम था...और हम पती पत्नी वहाँ पॉहोंच सलाह दें तो अच्छा रहेगा...हम स्कूटर पे जैसे थे पोहोंच गए...वहाँ तो कोई चाराही नही था..."

कहते, कहते वो रो पड़ी...रो तो मैभी पड़ी..उसकी मनोदशा समझ रही थी...लेकिन,मुझे मेरी सलाह याद ज़रूर आयी...गर उसने ,उसवक्त वो बात मान ली होती तो अपने सारे कागज़ात से तो हाथ धोना नही पड़ता...! खैर,मै इस बारेमे खामोश रही..

अबके वो ज़बरदस्त डिप्रेशन मे चली गयी...
कुछ ही दिनों बाद मेरा उस ओर जाना हुआ...उसकी बेटी जो UK मे स्थायिक हो गयी थी, उसने वहीँ पे शादी कर ली थी..उसका स्वागत समारोह भी था..और उसी तारीख को इसकी शादीका २५ वां सालगिरह...

शेहेर बँट-सा गया था..इसीके स्कूल की टीचर्स, जिन्हें,इसीने अपने स्टाफ पे रखा था, इसके समारोह मे आनेसे डरती थीं...
इसने किसी मशरूम निर्यात करने वालेसे contract कर, तकरीबन ३० लाख रुपये लगा दिए थे...मशरूम अपने फार्म हाउस पे और उसके पासमे जो और एक ज़मीनका टुकडा था,वहाँ उगाए थे...
मैंने पूछा," लेकिन इनकी बिक्री की क्या गारंटी?"
उसने कहा," अरे, सारा माल वही खरीद लेगा..हमें बस, उसके पाससे बीज लेने पड़े..इस ३० लाखके हमें ६० लाख मिलेंगे!!!!"

मैंने बड़ी हैरतसे कहा," लेकिन कुछ लिखा पढ़त हुई है?"
उसने कहा," उसके पाससे हमने बीज खरीदे,उसकी सारी रसीदें हैं..और xxxx जो हैं, उनकी अच्छी जान पहचान है..उन्हीने तो हमें भेजा वहाँ....देखा, मै अपने डिप्रेशन से कैसे बाहर निकल आयी..सकारात्मक सोचना चाहिए हमेशा..."
वो किसी "बाबा" के चक्कर मेभी पड़ गयी थी..जो अपने आपको साईं बाबा के अवतार कहते थे...उसका पती उनकी "पादुकाएँ" अपने सरपे टोकरीमे लिए एक घरसे दूसरे घर, जब उनके शेहरमे सत्संग होता, ले जाया करता..मुझे पता था,कि, ये अपनी पत्नीको खुश करनेके लिए हर मुमकिन कोशिश करेगा...उस बाबाके साथ तो अब उनका ,उसकी माँ समेत ( बच्चे नही),पूरा परिवार ही शामिल हो गया है...ये तो बात बादकी...

यही सब चलते,एक दिन मुझे उसका फोन आया, तो मैंने मशरूम के बारेमे पूछा...
वो बोली," अब तो तुम और,और उससे ज़्यादा तो तुम्हारे पती, हमें गुस्सा करही ही देंगे.....उसीके कारण मैंने फोन किया...उस दुकानदारने हमारे सारे मशरूम "रिजेक्ट" कर दिए...ये कहके कि, वो ख़राब हैं..उनके "स्टैण्डर्ड"पे खरे नही उतरते...
अब मेरे पती, तुम्हारे पतीसे आके मिलना चाहते हैं..वो कब मिल सकते हैं?"

मैंने कहा," तुम अपने पतीसे खुदही उनसे बात करनेके लिए कह दो..मै कुछ कहने जाऊँगी तो वो सबसे प्रथम मुझपे बरस पड़ेंगे..फिरभी,मै उनसे इतना बता दूँगी, कि तुम या तुम्हारे पती ,उनसे संपर्क करेँगे .."

मै जानती थी, अपने पतीकी प्रतिक्रिया...इन पती-पत्नी ने कोई लिखा पढ़त नही की थी...इस तरह के काम वो दोनों कई बार कर चुके थे और मै, हरबार आगे बढ़के किसी ना किसी तरह उनकी मुश्किलें हल करनेकी कोशिश किया करती...
जब मैंने अपने पती से सिर्फ़ इतना बताया कि, उसके पती उनसे मिलना चाहते हैं...वो मुझपे बरस पड़े...! लाज़िम था..लेकिन,गलती मेरी नही थी...और वो ख़ुद कई मामलोंमे उसके पतीकी सलाह लेते रहते थे...खैर!

उनकी मुलाक़ात तो हुई...हम उन दिनों मुम्बई, तबाद्लेपे आ चुके थे...

क्रमश:

शनिवार, 9 मई 2009

नेकी कर कुएमे डाल..२ के बारेमे कुछ..

इस पोस्टपे मैंने कुछ और "add" किया है, जो सम्पादन के समय मुझे ज़रूरी लगा॥
ग़लतीके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ..
शमा

शुक्रवार, 8 मई 2009

नेकी कर कुएमे डाल ! ३

नेकी और पूछ, पूछ...! इस उक्तीके साथ मै ज़िन्दगीमे बढ़ती चली गयी....बिना किसीके कहेही चुपचाप काम कर देना मेरी आदतसी बन गयी थी...और कुएमे तो डालही देती थी...! कई बार कोई मुझे याद दिला देता," तुमने हमारी "उस" समय बेहद मदद कर दी...वरना पता नही क्या हो जाता॥!"
सुनके मै कुछ देर सन्न-सी रह जाती, क्योंकि मुझे क़तईभी याद नही आता की, मैंने कौनसी मदद कर दी थी? खैर..

जब हम उस शेहेरमे पोहोंचे ही थे, तब उसने अपने बच्चों के बारेमे अपनी तम्मनायें मुझसे कहीँ...बेटा तो केवल दो सालका था...! पहले तो वो उसे वो पता नही क्या बनाना चाह रही थी, लेकिन, मेरे पतीसे मुलाक़ात होनेके पश्चात उसके मनमे घर कर गया," इसे तो एक IPS अफसरही बनाना है..."

बड़ी बेटीको मेडीसिन मे दाखल करना है...जबकि, वो मेरीही बेटीके क्लासमे थी..५ वी की...! इसलिए क्योंकि, उसकी जेठानी, जो स्वयं एक आर्किटेक्ट थी, वो चाहती है...
हैरत तो ये थी कि, ये मेरी सहेली साडियाँ तक उसकी जेठानी की पसंदकीही पहेनती थी! वजेह ? जेठानी मुम्बईमे रहती थी..मुम्बई तो अत्याधुनिक परिधानों की नगरी कहलाती है...! मेरी देखा देखी उसने अपना वस्त्रोंका चुनाव तो बदल दिया...कहीँ ना कहीँ, उसपे इस बातका प्रभाव पडा कि, मुझे किसीभी "लेटेस्ट" परिधानमे कभी कोई रुची ना पहले रही ना तब थी...नाही मुझे वस्त्रों की कीमत असर करती...
हाँ...उसे वस्त्रों की कीमत की ज़रूर हमेशा परवाह रही...

बीछ्वाली बेटीको वो टीचर बनाना चाहती थी...कि उसके बाद स्कूलकी धरोहर वो उस बेटीको सौंप देगी...
बड़ी बेटीको उसने हर तरीकेसे ,हादसे ज़्यादा छूट दे रखी थी...१४ सालकी उम्र सेही वो टूवीलर चलाती रही...पोशाख भी, उसके, उस शेहेरके हिसाबसे बेहूदा होते थे...वो शिकायत करती," मुझे इस शेहेर की मानसिकता नही अच्छी लगती...सड़क पे सब मुझे घूरा करते हैं.."
इस बातका मैंने कभी जवाब देना उचित नही समझा....

एक दिन इस सहेलीने मुझे कहा," जानती हो मेरी बड़ी बेटी क्या बनना चाहती है? फ़िल्म अभिनेत्री ...! मेरी जेठानी सुनेगी तो क्या कहेगी? तुम्हें क्या लगता है, मैंने इसे किस तरह से परावृत्त करना चाहिए?"
" तुम सचमे मेरी सलाह जान लेना चाहती हो?" मैंने पूछा...
" और नही तो क्या...? इसीलिये तो पूछ रही हूँ..?उसने उत्तरमे कहा।
" तो फिर उसे परावृत्त करना छोड़ दो..अभी तो वो केवल ५ वी कक्षामे है...कह दो उसकी, अपनी पढ़ाई तो पूरी करे..कमसे १२ वी कक्षा तक...फिर देख लेंगे...और वैसेभी, गर वो एक अभिनेत्री बनना चाहती है तो उसमे बुरा क्या है? अभिनयमे जिनका सानी नही नही, ऐसी मिसालें हैं हमारे सामने...और अगर चरित्र को लेके परेशाँ हो,तो, वो तो उसके अपने ऊपर निर्भर है...जबतक वो नही चाहेगी, उसे कोई बहका नही सकता...और ये बात किसीभी पेशेसे संलग्न नही..फिल्मों मेभी ऐसी मिसालें हैं, जहाँ नायिकायों ने बेहूदा वस्त्र पेहेंनेसे इनकार किया है..येतो, बुरा ना मानो, अभीसे पेहेन लेती है!...."
जब उसकी ये बेटी ८वी कक्षामे आ गयी, उसे, उसकी जेठानीकी कहने परसे, एक बडेही मशहूर international स्कूलमे भरती करा दिया...
अब बीछ्वाली बेटी भी ज़िद करने लगी,कि, उसकी बेहेन जा सकती है, तो वो क्यों नहीं? अब इसने पैसोंका किसी तरह जुगाड़ कर उसेभी भेज दिया...लेकिन वो लडकी कुछ ही दिनोंमे लौट आयी...
बड़ी बेटीके १० वी कक्षामे पोहोंचते पोहोंचते, उसपे सेरामिक डिजाइनर बननेका भूत सवार हो गया...और सच तो ये है,कि, वो बनभी गयी..फिलहाल UK मे स्थायिक है..!उसने एक अँगरेज़ लड़केसे ब्याह्भी कर लिया...!
मँझली बेटी आज एक मशहूर विमान सेवामे एयर होस्टेस है...और मेरी सहेलीको इस बातका बेहद अभिमान है....ये लडकी जब मुम्बई मे अपनी पढाई कर रही थी...तब एक पग की हैसीयतसे रह रही थी...बादमे मेरी सहेलीको कई बातें पता चलीं...अपनी बेटीके चालचलन को लेके...पर उसे समझा बुझाया गया ,तो,वो सही राह्पे आभी गयी...
बेटा पायलट बन गया है..US मे स्थित है..
चलो, ये तो बादकी बातें हुईं...

मेरी ये सहेली, हमेशा किसी ना किसीसे परेशाँ हो मेरे पास दौडे चली आती...हमारा घर ( या कहिये..हमारे घर, क्योंकि उस शेहेरमे ४ अलग,अलग मकान बदले गए....मेरे पतीके २ तबादले उसी शेहेरमे हुए...)हमेशा उसकी स्कूल तथा उसके घरके पासही हुआ किया...सिर्फ़ एकबार छोड़, जब हमें चंद महीने किरायेके मकानमे रहना पडा....

उसकी हर बात मै खुले मनसे सुन लेती...कई बार अन्य लोगोंसे पंगेभी ले लेती...उसे हरसमय येभी शंका रहेती,की, कोई ना कोई उसका फायदा उठा लेता है..दूसरी ओर येभी कहती,कि, वो चाहे किसी समारोहमे जाय, लोग उसीके इर्दगिर्द हो जाते हैं...वो इतनी हरदिल अज़ीज़ है...! जानती थी,कि, ये उसका यातो बचपना है, या कहीँ अपने मनही मन असुरक्षित महसूस करती है..

उसे येभी गुरूर था,कि, उसे कोईभी भारतीय संगीत या नृत्य, या कला पसंद ही नही...नाही उसके पतीको...इसमे चाहे किसीने उसके स्कूल के समारोह के आयोजनोंमे कितनीही मदद क्यों ना की हो, वो उस व्यक्ती के किसी ऐसे समारोहमे जाना अपने शानके ख़िलाफ़ समझ लेती...मै जाती तो मेरे साथ चलीभी आती...आयोजनके स्थलपे पोहोंच, उसे फिर वही गुरूर रहता कि, देखा, सब कितना मेरेही करीब आना चाहते हैं...पता नही मुझमे कुछ हैही ऐसा जो लोग खिंचे चले आते हैं..

इन सब बातोंको सुन लेनेकी मुझे आदत हो गयी थी...और सुनके ना मुझे खिज होती ना, नाही बुरा लगता...वो जैसी थी, मैंने उसे वैसाही स्वीकारा था...और उसके गुन अवगुण जोभी थे, उसमे उसके चरित्र को लेके कोई छींटा कशी नही कर सकता था...उसपे कईयों ने ये इलज़ाम भी लगाया कि, वो, स्कूलमे प्रवेश देते समय अनुदान लेती है...मै जानती थी, ये सच नही था...ये इलज़ाम उन्हीं लोगों ने लगाये, जिनके बच्चों को एक विशिष्ठ संख्याके कारण किसी वर्गमे प्रवेश नकारा गया...

खैर...हमारा कभी तो तबादला होनाही था...हो गया...बंजारों की ज़िंदगी बिताते रहे...हमारे मुम्बई मे रहते, रहेते,समाचार मिला कि, उसके भाईकी ह्त्या कर दी गयी...ह्त्या उसके भाईके रहते घरमेही हुई...रातमे हुई...घरके व्यक्तियों के अलावा कोई अन्य घरमे आया हो, इसका सबूतभी नही था...
घरमे रहनेवाले व्यक्ती थे, केवल उस भाईका अपना बेटा और उसकी पत्नी...लेकिन, कुछ दिनों बाद केस रफा दफा हो गया...इस भतीजे को इस सहेलीने काफ़ी प्यारसे अपने घर बुला बुलाके पढाया भी था...जब वो लड़का स्कूलमे था....लेकिन बादमे उसने पढ़ाई छोड़ दी...अपने पिताकी ही तरह, वो "अन्य" कामों को लेके मशहूर रहा....

उन कामों को मै कलमबद्ध नही करूँगी...यही बेहतर होगा...जिन राजनेताओं के साथ उस परिवारका उठना बैठना था, उनके बारेमेभी नाही लिखूँ तो बेहतर...लेकिन ये सब जानते हुएभी मैंने उसका साथ देना नही छोडा...
मुम्बईकी पोस्टिंग मे जब हमलोग थे, उसके पिताका निधन हो गया...उसके पूर्व उनपे किसीने प्राणघातक हमलाभी किया था...US बातका भी कभी पता नही चल सका कि, क्यों और किसने...उनकी म्र्युत्यु तो दिलके दौरेसे हुई....
मुम्बईके पोस्टिंग मेही रहेते, उसके जेठानी, जो बेहद तेज़ रफ़्तार वाहन चालक थी, उसके हाथसे एक भयानक हादसा हो गया..जिसमे सहेलीके ससुर की म्र्युत्यु हो गयी...जेठानी ख़ुद कई महीनों अस्पतालमे पड़ी रही...ये हादसा पुनेमे हुआ...

इस सहीलेने और उसके पतीने अपना एक छोटा-सा फार्म हाउस भी बना लिया...साधारणतः, मै बिना पूछे किसीको सलाह मशवेरा देतीभी नही...उसने मुझे फार्म हाउस का नक्शा बताया...ज़ाहिर था,कि, आर्किटेक्ट मुम्बई काही होना ज़रूरी था...US छोटे शेहेर मे कौन इतना क़ाबिल था? जब नक्षेको लेके उसने मेरी राय जानना चाही,तो मैंने सिर्फ़ इतनाही कहा," नक्शा तो बेहद अच्छा है, लेकिन ये जो "स्प्लिट लेवल" है, मुझे ज़रा खतरनाक लग रहा है..."

उसका उत्तर था," लेकिन येतो बेहद मामूली है...और वैसेभी मुम्बईके आर्किटेक्ट अपनीही चलाते हैं...और मुझे तो ये सुंदर लग रहा है...यहाँ पे रेलिंग आ जायेगी...एक "विला" की तरहसे लगेगा..."

उस घरकी "हाउस warming" के समारोहमे तो मै नही जा पायी..लेकिन उसी दिन, उसकी माँ, जो एक कैंसर की मरीज़ थी, स्प्लिट लेवल के कारण बड़ी जोरसे पटकी खाके गिर गयी...और कई जगह हड्डियाँ टूट गयीं...पिताके निधनके बाद, अपनी माँ की देखभाल इसीके ज़िम्मे थी...

इन सब झमेलोंके चलते हमारा विदर्भ मे तबादला हुआ...मेरी बेटी US चली गयी... उसे छोड़ हम हवाई अड्डे से मुम्बई की पुलिस मेसमे लौट रहे थे...... मैंने अपने पतीसे, एक जान पहचानके अफसरको, जो हमें अपने माता पिताका दर्जा देता था, सिर्फ़ इतना फोन करनेके लिए कहा,कि, इस महिलाको कमसे कम तकलीफ ना पोहोंचे, इस बातका ध्यान रखा जाय....( भाई की ह्त्या को लेके या स्कूलके अन्य झमेलों को लेके)....
विदर्भ लौट जानेसे पूर्व मै उसे मिलभी आयी....येभी सच था,की, कई लोग मेरे उस शेहेरसे दूर जानेके इन्तेज़ारमे थे...अपनी खुन्नस निकालनेके लिए...

अपनी अपनी ओरसे हम दोनों हमारी दोस्ती निभाते रहे....लेकिन अबतक येभी सच था,कि, उसपे अपनी दोस्ती, मेरे प्रती, सही मायनेमे साथ खड़े हो, निभानेका प्रसंग आयाही नही था...मुड़ के देखती हूँ,तो लगता है, जैसे मुझे मेरे कुछ अन्य मित्र गण कहते थे, ये बात तो मैनेही करके दिखायी थी...पर मुझे उस बातका ना कोई गुरूर था, ना गिला, ना एहसास...
एहसास तो तब हुआ हुआ, जब उसने कही एक बात मेरे कानों तक पोहोंची...खैर!! अभी उस बातके करीब आनेमे समय है...उसके पूर्व काफ़ी कुछ हुआ...उसके जीवनमे.....हुआ तो मेरेभी, लेकिन उसका प्रभाव मेरी सहेलीपे नही पडा...
हमारे विदर्भ मे रहते, एक और ज़बरदस्त आघात उसपे हुआ......मेरी दख़ल अंदाजी एक तरहसे खतरेसे खाली नही थी.....नाही मैंने की...लेकिन एक मकामपे आके मुझे दख़ल अंदाजी तो नही, लेकिन उसका साथ अवश्य निभाना पडा...और बडीही शिद्दतसे मैंने निभाया....जब आधेसे अधिक शेहेर उससे दूर रहेना चाह रहा था...मैंने खुलेआम उसका साथ निभाया...

क्रमश:

नेकी कर कुएमे डाल..२

हमारी ज़िंदगी बीतती रही...बोहोत करीब रहे हम दोनों...उसके बचपने के कारण कई बार उसे परेशानी उठानी पड़ती...और मै हर हाल मे उसके साथ हो लेती...
उतार चढाव तो मेरे जीवनमे भी शामिल थेही...
छ: साल उस शेहेरमे गुज़रे.....हर साल हम हमारी दोस्तीकी सालगिरह याद कर लेते....आज उस बातको २१ साल हो गए हैं...

उस दौरान कई हादसे उसके जीवनमे हुए...कई परेशानियाँ खडी हुई..कई अधिकारियों ने उसे अपने अधिकार के तहेत बेहद सताया...मुझे कभी नही लगा, की, उसका साथ देनेमे मै कुछ ख़ास कर रही हूँ...या जब दुनियाँ जानती है,कि, मै उसके साथ हूँ , तो उसके क्या परिणाम हो सकते हैं...और उसने हमेशा कहा,कि, गर मै उसके साथ ना होती, तो वो कबकी टूट चुकी होती..उसके अपने बेहेन बहनोई, भाई ...सभीने उसे हरवक्त सतायाही सताया...

स्कूलकी कई टीचर्स एक ईर्षा के तहेत बोहोत बार मेरे बेटेकी शिकायत लेके उसके पास पोहोंच जातीं...
बड़ी मज़ेदार आदत थी/और आजभी है, मेरे बेटेको...जब वो किसी चीज़मे डूबा हुआ होता है...चाहे पढ़ाई हो, क्लास रूम का लेक्चर हो या, टीवी पे कोई कार्यक्रम...अपने मूहमे ज़बान इस्तरह्से घुमाता है, जैसे कुछ खा रहा हो...
एकबार इस सहेलीने मुझे अपने स्कूलमे बुलाया और कहा, कि, उसे मेरे बेतेसे शिकायत है..कि उसकी टीचर्स को भी शिकायत है...
मेरे पूछ्नेपे उसने मेरे बेटे तथा टीचर्स को अपने दफ्तर मे बुलाया। टीचर ने मुझसे कहा," ये क्लास मे हरवक्त कुछ खाता रहता है। जब उसे पूछा जाता है,तो, निगल जाता है। और ना "सॉरी" कहता है ना कुछ...बस, मेरे मूहमे कुछ नही था, इसी एक बातको दोहराता है..."
मै हँसने लगी...और कहा," सच तो यही है...उसके मूहमे कुछ नही होता..उसे मूह्के अन्दर ज़बान घुमानेकी आदत है..और जब ना मै उसे कोई स्वीट्स देती हूँ, ना पैसे, तो वो रोज़,रोज़ क्या खा सकता है?"
मुख्याध्यापिका ने कहा," नही, ये सच नही है..मैंने ख़ुद उसे अपने दफ्तर मे बुलाया था...उसवक्त कुछ लोग मुझे मिलने आए हुए थे..मैंने इसे एक कोनेमे खड़ा रहनेके लिए कहा...उसे दो तीन बार देखा...वो अपने मूहमे कुछ रखे हुए था, उसे चूसता जा रहा था...जब मैंने उसे अपने सामने खड़ा करके मुँह खोल्नेको कहा तो उसने मुँह खोला..कुछ नही था, और जब मैंने उसे डांटा,कि, सच कहो, क्या सटक गए, उसने सिर्फ़ मुस्कुरा दिया...इसकी इतनी मजाल? कि अपनी मैडम के आगे, इतना मगरूर? सिर्फ़ मुस्कुरा देता है? जवाब नही दे सकता? सच नही बता सकता"?
वो तमतमा गयी थी।
मैंने कहा,"अपनी सहेलीसे भी( जो उस वक्त मेरे बेटेकी मुख्याध्यापिका थी), और टीचर सेभी भी," गर आपको ऐसा लगता है,कि, वो कुछ खा रहा, है,तो मै, इसके आगे कुछ नही कहूँगी...आपके नियमों तहेत जो वाजिब हो, वो सज़ा उसे देदें...मुझे कोई ऐतराज़ नही..."

खैर! मनही मन मुझे अफ़सोस हुआ कि, बच्चा सच कह रहा था, लेकिन उसे झूठा ठहराया जा रहा था.....

उस घटनाके कुछ रोज़ बाद हमारे यहाँ भोजनका आयोजन था। मेरी सहेली और उसके पती भी आमंत्रित थे। अचानक मुझे अपना बेटा दिखा, जो दूसरे कमरेमे एक टीवी प्रोग्राम देख रहा था...मैंने मेरी सहेली की और इशारा किया और उसे उस कमरेमे ले गयी। बेटा अपनेआपमे मगन था। मैंने सहेलीको दिखाया," अब देखो, इसका मुँह...और कहो अभीके अभी खोलनेको..."
उसने क्या, मैनेही अपने बेटेसे पूछा," तुझे भूक लगी है? कुछ खायेगा? "
बेटेने जवाब दिया," माँ! मै क्या खा सकता हूँ? भूक तो लगी है, लेकिन मुझे परोस दो, वरना तुम फिर कहोगी कि, तुमने ठीकसे नही परोसा ....इधर उधर गिराया...!"
मेरी सहेलीने गौर किया कि, ना तो उसने अपने मूहमेसे कुछ सटक लेनेका यत्न किया, नाही उसके मूहमे कुछ था...खैर उस दिनतक वो इस बच्चे को ना जाने कितनी बार सज़ा दे चुकी थी...उसका इसबार कमसे कम मेरी और उसकी, दोनोकी सच्चाई पे विश्वास तो हुआ...
मेरे पतीको एक दिन हँसते हँसते मैंने ये क़िस्सा सुनाया तो वो कह बैठे," बड़ी अजीब औरत है ये...तुम उसके लिए इतना कुछ करती रहती हो और तुम्हारी इस बातपे उसका विश्वास नही था? वो अपने टीचर्स को खुश करना चाहती थी? एक बेगुनाह बच्चे के ज़रिये?"
उनकी बात सही थी, लेकिन मैभी सही मौक़ेके तलाशमे थी। स्कूलके अधिकार और नियमोंमे दख़ल अंदाज़ी किसीभी हालमे नही करना चाहती थी।
क्रमश :

सोमवार, 4 मई 2009

नेकी कर कुएमे डाल...! १

वैसे तो इस कहावत की पुष्टीकरण के लिए किस्से हजारों मिल जायेंगे ...और एक मैही नही सभीके पास होंगे....!

लेकिन कुछ ऐसे वाक़यात हैं, जिन्हें मै शायदही भुला पाउंगी....अचरज भी होता है...और फिर सोचती हूँ....मैंने इन व्यक्तियों को वैसेतो शुरुसेही जाना था...कि इनकी असलियत क्या होगी...लेकिन हमेशा यही मानके चली, कि ऐसा कौन मिलेगा जिसमे कुछ न कुछ ना खामियाँ ना हों? और हरेक रिश्ता एक क़ीमत के साथ ही आता है...हम दोस्तीको बेहद निष्कपट और पावन एहसास मानते हैं...लेकिन उसे निभानेकी ज़रूरत होती है...ऐसा नही कि, हमने जब चाहा अगला हाज़िर, वरना हम उसे भुलाए रखें...अन्य रिश्तोंकी तरह, इसेभी हमें अपने प्यार और स्नेह्से सींचना ही होता है...बेहद एहतियात बरतनी होती है...और ये एक रिश्ता ऐसा है,कि, ज़रासीभी लापरवाही बर्दाश्त नही कर पाता...कोमल पौधेके तरह...

जब मै अपने अंतरमे झाँक के देखती हूँ,तो पाती हूँ, कि, मैंने अक्सर ऐसे रिश्ते बेहद मेहनतसे निभाएँ हैं....और अपनी पीठ थपथपाने के लिए नही कह रही...वरना अपने बारेमे अन्य सत्य मान लिए , मै इसेभी मान लेती...

सबसे प्रथम, अपनेआपको तकरीबन २१ साल पहले ले चलती हूँ....जब मेरी वाकफ़ियत एक महिलासे हुई...वो महिला थी मेरे बच्चों के स्कूल की मुख्याध्यापिका....बस तभी हम उस शेहेरमे पोहोचे थे....बच्चों के प्रवेशके ख़ातिर मै उसके साथ मिली। बच्चों ने प्रवेशके लिए जो ज़रुरियात थे वो पूरे किए...जैसे गणित और इंग्लिश की लिखत परिक्षा।
वैसे मुझे इशारतन कहा गया कि, इस स्तर के अधिकारियों के बच्चों को, जो तबादले पे आते हैं, स्कूलों को प्रवेश देना बंधनकारक होता है...प्रवेश के समय कोई परीक्षा नभी दें तो चलता है। खैर, मै इन बातों मे नही विश्वास रखती थी...गर इतना गुमान है तो फिर ऐसेमे अफसरों ने सरकारी स्कूलोंमे अपने बच्चों का दाखिला करा लेना चाहिए।

सौभाग्यवश, मेरे दोनों बच्चे आसानीसे दाखिला पा गए।

मुख्याध्यापिका हँसमुख थी...थोड़ी बालिशभी...पर जैसे मैंने कहा, हरेकमे कुछ न कुछ स्वभाव विशेष होतेही हैं...उसमे ये था..अन्य गुण भी थे...अपनी स्कूलके हर बच्चे को वो नामसे जानती थी। येभी था,कि, अपनी हर विशेषता उसे ज़ाहिर करनेकी इच्छा रहती। अपनी ओर ध्यान हरवक्त आकर्षित करना उसे हमेशा अच्छा लगता...शायद एक बच्चे की तरहसे...कभी कबार मेरी बिटिया इस बातसे काफ़ी चिढ -सी जाती...उसे लगता, मैडम हमेशा अपनेही बच्चों के बारेमे बात करती रहती हैं...या फिर बड़े फख्र से वो बताती कि, उसे आजभी गुडियों से खेलना पसंद है..पलभर मुझेभी ज़रा अजीब-सा लगा..लेकिन पल भरही ...उसने जैसेही मुझसे कहा," जानती हो, मुझे लता कहती है कि, मै अपरिपक्प हूँ ! "
मैंने झटसे उत्तर दिया," हम सभीमे कुछ ना कुछ बचपना होताही है...कुछ उसपे परदा डाले रखते हैं, कुछ नही डाल पाते...!"

हम दोनोकी दोस्ती के चर्चे उस स्कूलसे बाहर निकल उस शेहेरमेभी मशहूर हो गए। शेहेर कोई महानगर तो था नही...और येभी हुआ कि, हमने अपने बच्चे उस स्कूलमे डाले...जबकि, उससे पूर्व हरेक अधिकारीके बच्चे एक अन्य स्कूलमेही डाले जाते...उस सालके बाद ये प्रथा बदल गयी...सभी उसी स्कूलमे प्रवेश पानेकी ख्वाहिश रखने लगे...और वो महिला स्कूलको अपने एक अपत्य के नज़रसेही देखा करती...

स्कूल उसीके पिताकी ओरसे शुरू की गयी थी। शादीके बाद वो मुम्बईमे बस गयी थी। इतनाही नही, उसकी स्कूली और महाविद्यालयीन पढ़ाई भी मुम्बईमे हुई थी। उसके पती एक बैंक मे कार्यरत थे। जब ये स्कूलकी शुरुआत हुई तब कोई अन्य महिला मुख्याधिपिका बनी। बादमे पता चला कि, उसके पास कोई सही कागजात नही थे, जो, उसकी पढाई कितनी हुई और कहाँ हुई इस बातको बताये...! खैर...! उसे निकालें तो पर्यायी तौरपे दूसरा कोई होना ज़रूरी था...
मेरी इस सहेलीने Be.Ed. किया हुआ था...अपने पिताकी स्कूल मे मुख्याधिपाका बन जानेके बाद उसने M.Ed भी कर लिया।

मुम्बई छोड़ आनेके बाद उसके पतीने, उसी स्कूलमे, बिना वेतन, गणित और शास्त्र विषय पढ़ने शुरू किए। उसे अपने बैंक की नौकरी छोड़नी पड़ी। सहेलीके पिताकी शराबकी दुकान थी। उसका एक भाईभी था, जोकि, उसी शेहेरका बाशिंदा था। उसके इर्द गिर्द जिन लोगों का उठना बैठना था, उस बारेमे मै कुछ ना कहूँ तोही ठीक होगा। अपने परिवारसे उसका कमही नाता रहा था।

एक बेहेन थी, जो मुम्बईमे C.A. थी...उसके जीजा, एक बड़ी मल्टी national कम्पनीमे कार्यरत थे। उन्हें स्कूलके boardpe लिया गया था। बल्कि, वो चेयरमैन थे।
एक समय ऐसा आया...उसी साल, जिस साल हम उस शेहेरमे आए...जब पिताकी जायदाद के बंटवारे की बात सामने आने लगी। सहेलीके पतीको अपनी पत्नीके कामके कारण अपनी बैंक की नौकरी छोड़ देनी पड़ी थी। वो उसी स्कूलमे बिना वेतन अपनी सेवायें दे रहा था। खैर मुद्देकी बातपे सीधे आ जाती हूँ। वो शराबकी दुकान उसके नामपे होना ज़रूरी था, वरना उसकी उपजीविकाका क्या साधन होता? मैंने ये बात उसके पिताको बडीही शिद्दतके साथ समझायी...जबकि, बाप बेटीमे तकरीबन बोलचाल बंद हो गयी थी। दुकान उन्हों ने उसके नामपे कर दी...ये बातभी मान ली, कि, गर शायद मै दख़ल नही देती वो इस ओर गौर नही करते...
क्रमशः

शनिवार, 2 मई 2009

क्यों होता है ऐसा? ३

जब भी अपनेआपको खोजती हूँ..अपने साथ मेरे अपनों को भी बेनकाब होते देखती हूँ...जबभी झाँकती हूँ अपने अतीतमे, साथ मेरे चेहरेके और कई चेहरोंको आईना दिखा देती हूँ...यकीनन, ये इरादतन नही होता...ज़ाहिर है, उन हालातोंमे, उन लमहोंमे, जोभी मेरे साथ मौजूद रहा होगा, उसका प्रतिबिम्ब साथ मेरे, नज़र आही जायेगा...

उम्र और अनुभव दुनियादारीकी रस्मे सिखाते गए...सिर्फ़ किसीके लिए दुनियादारी सही होती, वही किसी औरके नज़रमे ग़लत साबित होती...इस कश्मोकशने मुझे हमेशा घेरे रखा...

आज वही, जिन्होंने मुझे झूटके पहले पाठ दिए, मुझसे पता नही किस,किस बातकी जवाबदेही माँगते हैं....कुछ तो इस दुनियासे चल बसे हैं...उनके बारेमे तो कुछभी कहना लिखना, ठीक नही होगा...सिर्फ़ गर मेरे कथ्यके सफरमे वो आके खड़े होंगे तो बस, उस एक घडीको छूके निकल पडूँगी...और क्या कहूँ?

आज सीधे उसी बातपे आ जाती हूँ, जिसने मुझे पिछले कुछ सालोंमे कई बार कट्घरेमे खड़ा किया...ऐसा नही,कि मै कट्घरोंसे बाहर थी...लेकिन एक और इलज़ाम, मेरे माथे आ गया......

मै अस्पतालमे भरती थी....कोई परिवारवाला साथ तो नही हो सकता था हरसमय...बेटी अमरीकामे था...बेटा बस तभी, पंजाबसे मुम्बई आ गया था...हर कोई अपने काममे मगन...सभीको अपना काम एहेम लगता...काम तो मैभी करती, लेकिन घरसे, कोई दफ्तर तो नही था...बेहद एकांत रहता..

सरका दर्द बेइंतेहा बढ़ता जा रहा था...और उसका कारण चंद महीनों बाद पता चला...एक डॉक्टर ने ग़लत दावाई दे दी थी...जबकि उसके कंटेंट मुझे रास नही आते थे, ये बात मैंने पहलेही स्पष्ट की थी...लेकिन दवायीका नाम अलग था तो मै तब समझ नही पायी...जब समझमे आया, तबतक हदसे ज़्यादा नुकसान हो चुका था...
ऐसेही एक भयंकर attack के चलते मुझे अस्पतालमे दाखिल करा दिया गया...

मेरे एक अन्य डॉक्टर ने जो दूसरे शेहेरमे रहेते हैं, मुझसे एक टेस्ट करवा लेनेको कहा था...contrast dye test या कुछ ऐसाही नाम था उसका...अस्पतालमे मेरे लगातार कुछ न test चलही रहे थे...अक्सर ऐसे मौकोंपे मै अकेलीही होती...करवा आती test...कई बार तो मुझे ऑपरेशन थिएटर मे जाके पता चलता की,ये अंडर LA कराया जायेगा याG Aके तहेत!
जोभी था...ये टेस्ट्स का तांता बना हुआ था...contrast dye की testkee reportme लिखा था, "संशयास्पद है"...ओपन MRI एकबार फिर करना होगा....पता नही मुझे क्या सूझा...मैंने वो रिपोर्ट छुपा दी....मेरे बेटेको एक रातमे, जब वो मेरे पास अस्पतालमे रुकने आया तो मैंने, बिना सोचे समझे कह दिया," डॉक्टर को लगता है, ब्रेन मे कोई ट्यूमर है.."

सच तो ये थाकि, मै उसका अपनी और ध्यान खींचना चाह रही थी..."उसे सेविंग करनेको कहो", ये बात अपने पतीसे लगातार सुनती जा रही थी...और वो कर नही रहा था...मनमे अजीब, अजीब ख्याल आते थे..जो अपना मन सोचता है,वो शायद दुश्मनभी नही सोचता...कहाँ खर्च कर रहा है ये जो सेविंग हो नही रही...? रहना खाना, सबतो फ्री था...हमारे साथ रह रहा था...

उसने जैसेही ये बात सूनी, वो बेहद गंभीर हो गया..लेकिन मेरा एक प्लान था...मेरे ओपन MRI टेस्टके होतेही मै सबकुछ नॉर्मल है, कह देनेवाली थी....उससे बड़ी इल्तिजा की, के ये बात और किसीसे ना कहना....लेकिन नही...उसने मुझे अल्टीमेटम दिया, कि यातो मै होके कहूँ, अपनी बेटीको या, वो कह देगा...उससे पहले उसने मेरे health issuarance पॉलिसी बनवा ली...मै रोकती रही, कि रिपोर्ट्स आ जाने दे...लेकिन नही...इस बातकी मुझे खुशीभी हुई,कि उसे मेरी कुछ तो चिंता है...खैर...और एक बडीही खुदगर्ज़ बात मेरे मनमे आयी....गर बिटियाको बताती हूँ, तो देखती हूँ, कि क्या वो अमरीका छोड़ अपनी बीमार माके पास आ सकती है? क्या भारतमेही जॉब ले सकती है?

बेटीको मैंने बेह्द्ही सहज भावसे लिखा...येभी कि बस दो दिन हैं, बात साफ़ हो जायेगी...ओपन MRI हो जाने दो...तबतक चिंता मत करो...अपने पिताको तो बिल्कुल मत बताना...उनपे पूरे महाराष्ट्रकी ज़िम्मेदारी है...ऐसा नहीकि, ऐसी पोस्टपे रहे लोगोंके परिवारों मे ऐसी बीमारियाँ ना हुई हो..और दिल तो करता था, कि सहीमे ऐसा कुछ निकले...मर्ज़ का निदान तो हो...अक्सर लोगोंसे यही सुनती," अरे सर दर्द तो है..ठीक हो जायेगा..."
किसे, किसे बताती कि, मुझे जैसा दर्द होता है, उसे जब कोई देख लेता है तभी,उसकी इन्तेहा या पीडा समझ पता है...

लेकिन बिटियाने हर मुमकिन जगह फोन कर दिए...मेरी बेहेनको मालूम पड़ा तो, उसने और मेरी माँ ने छानबीन शुरू कर दी...खैर रिपोर्ट हाथमे आ गए और मैंने सभीको कह दिया,कि भगवानके लिए अब इस बातको पीछे छोडो...एक शंका थी...मैंने उसका अपनी हताशामे फायदा उठाना चाहा...चाहा,कि, परिवार एक सूत्रमे बँधे...चाहे, मुझे कोई छोटी मोटी सर्जरी ही करनी पड़े....

लेकिन ये, बडीही भयंकर भूल हो गयी...मै सबसे औरभी दूर हो गयी...मैंने कैसी हताशामे, अकेलेपनमे, ये निर्णय लिया, मैही जानूँ...कोई स्पष्टीकरण नही....सर आँखोंपे ये इल्जाम ले लिया...हजारों बार माफी माँग ली...

लेकिन वो दिन है और आजका...मुझसे मुडके पूछा जाता है, तुमपे विश्वास कर सकते हैं?

क्या इतने दिनोंकी सच्चाई भूल गए सब? ये भूल गयेकी, जब उन लोगों की सुविधा होती तो ख़ुद भी झूठ कहते और मुझसेभी केहेलवाते..?

यही हुआ असर कि, बद अछा बदनाम बुरा...मैंने अपने बेटेके भले की सोची,कि वो शायद मेरे बहाने सेविंग शुरू कर दे...शायद, कभी कबर अपनी माँ के पास आ बैठे.....वो सब सपने रह गए...बडाही विकृत सत्य सामने आया...जो ताउम्र मेरा पीछा नही छोडेगा...मैंने लोगोंके कितनेही घिनौने असत्य, वोभी मेरे बारेमे भुला दिए हैं..और आगे बढ़ गयी...यही सोचके जिसने असत्य कहा, उसेभीतो पीडा पोहोंची ही होगी....
मुझे क्यों इस एक बातकी माफी नही मिल सकती? इसलिए कि, मैंने शातिर झूठी नही थी...के मुझसे ये उम्मीद नही थी...लेकिन अन्य कितनीही उम्मीदें मैंने चुपचाप पूरी की हैं..उनका कोई मोल नही?
चलिए, इन अदालतोंसे बरी होना मेरी किस्मत नही...

समाप्त।

अगली बार कुछ इस्सेसेभी अधिक विस्मयकारक बरतावोंके बारेमे लिखूँगी...नेकी कर कुएमे दाल...हर समय यही
बात गाँठ बांधके चलना चाहिए...