हमारी ज़िंदगी बीतती रही...बोहोत करीब रहे हम दोनों...उसके बचपने के कारण कई बार उसे परेशानी उठानी पड़ती...और मै हर हाल मे उसके साथ हो लेती...
उतार चढाव तो मेरे जीवनमे भी शामिल थेही...
छ: साल उस शेहेरमे गुज़रे.....हर साल हम हमारी दोस्तीकी सालगिरह याद कर लेते....आज उस बातको २१ साल हो गए हैं...
उस दौरान कई हादसे उसके जीवनमे हुए...कई परेशानियाँ खडी हुई..कई अधिकारियों ने उसे अपने अधिकार के तहेत बेहद सताया...मुझे कभी नही लगा, की, उसका साथ देनेमे मै कुछ ख़ास कर रही हूँ...या जब दुनियाँ जानती है,कि, मै उसके साथ हूँ , तो उसके क्या परिणाम हो सकते हैं...और उसने हमेशा कहा,कि, गर मै उसके साथ ना होती, तो वो कबकी टूट चुकी होती..उसके अपने बेहेन बहनोई, भाई ...सभीने उसे हरवक्त सतायाही सताया...
स्कूलकी कई टीचर्स एक ईर्षा के तहेत बोहोत बार मेरे बेटेकी शिकायत लेके उसके पास पोहोंच जातीं...
बड़ी मज़ेदार आदत थी/और आजभी है, मेरे बेटेको...जब वो किसी चीज़मे डूबा हुआ होता है...चाहे पढ़ाई हो, क्लास रूम का लेक्चर हो या, टीवी पे कोई कार्यक्रम...अपने मूहमे ज़बान इस्तरह्से घुमाता है, जैसे कुछ खा रहा हो...
एकबार इस सहेलीने मुझे अपने स्कूलमे बुलाया और कहा, कि, उसे मेरे बेतेसे शिकायत है..कि उसकी टीचर्स को भी शिकायत है...
मेरे पूछ्नेपे उसने मेरे बेटे तथा टीचर्स को अपने दफ्तर मे बुलाया। टीचर ने मुझसे कहा," ये क्लास मे हरवक्त कुछ खाता रहता है। जब उसे पूछा जाता है,तो, निगल जाता है। और ना "सॉरी" कहता है ना कुछ...बस, मेरे मूहमे कुछ नही था, इसी एक बातको दोहराता है..."
मै हँसने लगी...और कहा," सच तो यही है...उसके मूहमे कुछ नही होता..उसे मूह्के अन्दर ज़बान घुमानेकी आदत है..और जब ना मै उसे कोई स्वीट्स देती हूँ, ना पैसे, तो वो रोज़,रोज़ क्या खा सकता है?"
मुख्याध्यापिका ने कहा," नही, ये सच नही है..मैंने ख़ुद उसे अपने दफ्तर मे बुलाया था...उसवक्त कुछ लोग मुझे मिलने आए हुए थे..मैंने इसे एक कोनेमे खड़ा रहनेके लिए कहा...उसे दो तीन बार देखा...वो अपने मूहमे कुछ रखे हुए था, उसे चूसता जा रहा था...जब मैंने उसे अपने सामने खड़ा करके मुँह खोल्नेको कहा तो उसने मुँह खोला..कुछ नही था, और जब मैंने उसे डांटा,कि, सच कहो, क्या सटक गए, उसने सिर्फ़ मुस्कुरा दिया...इसकी इतनी मजाल? कि अपनी मैडम के आगे, इतना मगरूर? सिर्फ़ मुस्कुरा देता है? जवाब नही दे सकता? सच नही बता सकता"?
वो तमतमा गयी थी।
मैंने कहा,"अपनी सहेलीसे भी( जो उस वक्त मेरे बेटेकी मुख्याध्यापिका थी), और टीचर सेभी भी," गर आपको ऐसा लगता है,कि, वो कुछ खा रहा, है,तो मै, इसके आगे कुछ नही कहूँगी...आपके नियमों तहेत जो वाजिब हो, वो सज़ा उसे देदें...मुझे कोई ऐतराज़ नही..."
खैर! मनही मन मुझे अफ़सोस हुआ कि, बच्चा सच कह रहा था, लेकिन उसे झूठा ठहराया जा रहा था.....
उस घटनाके कुछ रोज़ बाद हमारे यहाँ भोजनका आयोजन था। मेरी सहेली और उसके पती भी आमंत्रित थे। अचानक मुझे अपना बेटा दिखा, जो दूसरे कमरेमे एक टीवी प्रोग्राम देख रहा था...मैंने मेरी सहेली की और इशारा किया और उसे उस कमरेमे ले गयी। बेटा अपनेआपमे मगन था। मैंने सहेलीको दिखाया," अब देखो, इसका मुँह...और कहो अभीके अभी खोलनेको..."
उसने क्या, मैनेही अपने बेटेसे पूछा," तुझे भूक लगी है? कुछ खायेगा? "
बेटेने जवाब दिया," माँ! मै क्या खा सकता हूँ? भूक तो लगी है, लेकिन मुझे परोस दो, वरना तुम फिर कहोगी कि, तुमने ठीकसे नही परोसा ....इधर उधर गिराया...!"
मेरी सहेलीने गौर किया कि, ना तो उसने अपने मूहमेसे कुछ सटक लेनेका यत्न किया, नाही उसके मूहमे कुछ था...खैर उस दिनतक वो इस बच्चे को ना जाने कितनी बार सज़ा दे चुकी थी...उसका इसबार कमसे कम मेरी और उसकी, दोनोकी सच्चाई पे विश्वास तो हुआ...
मेरे पतीको एक दिन हँसते हँसते मैंने ये क़िस्सा सुनाया तो वो कह बैठे," बड़ी अजीब औरत है ये...तुम उसके लिए इतना कुछ करती रहती हो और तुम्हारी इस बातपे उसका विश्वास नही था? वो अपने टीचर्स को खुश करना चाहती थी? एक बेगुनाह बच्चे के ज़रिये?"
उनकी बात सही थी, लेकिन मैभी सही मौक़ेके तलाशमे थी। स्कूलके अधिकार और नियमोंमे दख़ल अंदाज़ी किसीभी हालमे नही करना चाहती थी।
क्रमश :
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रोचक लग रही है यह श्रंखला यहाँ तक...
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतजार.