सोमवार, 11 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ७

कुछ अरसा हुआ इस बात को...पूरानें मित्र परिवार के घर भोजन के लिए गए थे। उनके यहाँ पोहोंचते ही हमारा परिचय, वहाँ, पहले से ही मौजूद एक जोड़े से कराया गया। उसमे जो पती महोदय थे, मुझ से बोले,"पहचाना मुझे?

"मै: "माफ़ी चाहती हूँ...लेकिन नही पहचाना...! क्या हम मिल चुके हैं पहले? अब जब आप पूछ रहें है, तो लग रहा है, कि, कहीँ आप माणिक बाई के रिश्तेदार तो नही? उनके मायके के तरफ़ से तो यही नाम था...हो सकता है, जब अपनी पढाई के दौरान एक साल मै उनके साथ रही थी, तब हम मिले हों...!"

स्वर्गीय माणिक बाई पटवर्धन, रावसाहेब पटवर्धन की पत्नी। रावसाहेब तथा उनके छोटे भाई, श्री. अच्युत राव पटवर्धन, आज़ादी की जंग के दौरान, राम लक्ष्मण की जोड़ी कहलाया करते थे। ख़ुद रावसाहेब पटवर्धन, अहमदनगर के 'गांधी' कहलाते थे...उनका परिवार मूलत: अहमदनगर का था...इस परिवार से हमारे परिवार का परिचय, मेरे दादा-दादी के ज़मानेसे चला आ रहा था। दोनों परिवार आज़ादी की लड़ाई मे शामिल थे....

मै जब पुणे मे महाविद्यालयीन पढाई के लिए रहने आयी,तो स्वर्गीय रावसाहेब पटवर्धन, मेरे स्थानीय gaurdian थे।जिस साल मैंने दाखिला लिया, उसी साल उनकी मृत्यू हो गयी, जो मुझे हिला के रख गयी। अगले साल हॉस्टल मे प्रवेश लेने से पूर्व, माणिक बाई ने मेरे परिवार से पूछा,कि, क्या, वे लोग मुझे छात्रावास के बदले उनके घर रख सकते हैं? अपने पती की मृत्यू के पश्च्यात वो काफ़ी अकेली पड़ गयीं थीं...उनकी कोई औलाद नही थी।

मेरा महाविद्यालय,उनके घरसे पैदल, ५ मिनटों का रास्ता था।मेरे परिवार को क़तई ऐतराज़ नही था। इसतरह, मै और अन्य दो सहेलियाँ, उनके घर, PG की हैसियत से रहने लगीं।

माणिक बाई का मायका पुणे मे हुआ करता था...भाई का घर तो एकदम क़रीब था।उस शाम, हमारे जो मेज़बान थे , वो रावसाहेब के परिवार से नाता रखते थे/हैं....यजमान, स्वर्गीय रावसाहेब के छोटे भाई के सुपुत्र हैं...जिन्हें मै अपने बचपनसे जानती थी।अस्तु ! इस पार्श्व भूमी के तहत, मैंने उस मेहमान से अपना सवाल कर डाला...!

उत्तर मे वो बोले:" बिल्कुल सही कहा...मै माणिक बाई के भाई का बेटा हूँ...!

"मै: "ओह...! तो आप वही तो नही , जिनके साथ भोजन करते समय हम तीनो सहेलियाँ, किसी बात पे हँसती जा रहीँ थीं...और बाद मे माणिक बाई से खूब डांट भी पड़ी थी...हमारी बद तमीज़ी को लेके..हम आपके ऊपर हँस रहीँ हो, ऐसा आभास हो रहा था...जबकि, ऐसा नही था..बात कुछ औरही थी...! आप अपनी मेडिसिन की पढाई कर रहे थे तब...!"

जवाब मे वो बोले: " बिल्कुल सही...! मुझे याद है...!"

मै: " लेकिन मै हैरान हूँ,कि, आपने इतने सालों बाद मुझे पहचाना...!२० साल से अधिक हो गए...!"

उत्तर:" अजी...आप को कैसे भूलता...! उस दोपहर भोजन करते समय, मुझे लग रहा था,कि, मेरे मुँह पे ज़रूर कुछ काला लगा है...जो आप तीनो इस तरह से हँस रही थी...!"

खैर ! हम लोग जम के बतियाने लगे....भाषा के असमंजस पे होने वाली मज़ेदार घटनायों का विषय चला तो ये जनाब ,जो अब मशहूर अस्थी विशेषग्य बन गए थे, अपनी चंद यादगारें बताने लगे...

डॉक्टर: " मै नर्सिंग कॉलेज मे पढाता था, तब की एक घटना सुनाता हूँ...एक बार, एक विद्यार्थिनी की नोट्स चेक कर रहा था..और येभी कहूँ,कि, ये विद्यार्थी, अंग्रेज़ी शब्दों को देवनागरी मे लिख लेते थे..नोट्स मे एक शब्द पढा,' टंगड़ी प्रेसर'...मेरे समझ मे ना आए,कि, ये टांग दबाने का कौन-सा यंत्र है,जिसके बारे मे मुझे नही पता...!
कौतुहल इतना हुआ,कि, एक नर्स को बुला के मैंने पूछ ही लिया..उसने क़रीब आके नोट्स देखीं, तो बोली, 'सर, ये शब्द 'टंगड़ी प्रेसर' ऐसा नही है..ये है,'टंग डिप्रेसर !' "

आप समझ ही गए होंगे...ये क्या बला होती है...! रोगी का, ख़ास कर बच्चों का गला तपास ते समय, उनका मुँह ठीक से खुलवाना ज़रूरी होता है..पुराने ज़माने मे तो डॉक्टर, गर घर पे रोगी को देखने आते,तो, केवल एक चम्मच का इस्तेमाल किया करते..!हमलोगों का हँस, हँस के बुरा हाल हुआ...और उसके बाद तो कई ऐसी मज़ेदार यादेँ उभरी...शाम कब गुज़र गयी, पता भी न चला..!

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ६

अपने बचपन की एक यादगार लिखने जा रही हूँ...! या तो रेडियो सुना करते थे हम लोग या रेकॉर्ड्स......हँडल घुमा के चावी भरना और "his master's voice" के ब्रांड वाले ग्रामोफोन पे गीत सुनना...

एक रोज़ मैंने अपनी माँ से सवाल किया,
"अम्मा ! अपने कुए के पास कोई जल गया?"

अम्मा: " क्या? किसने कहा तुझसे...?कोई नही जला...! " मेरी बात सुनके, ज़ाहिरन, अम्मा काफ़ी हैरान हुईं !
मै : "तो फिर वो रेडियो पे क्यों ऐसा गा रहे हैं.....वो दोनों?"
अम्मा: " रेडियो पे? क्या गा रहे हैं?" अम्मा ने रेडियो की आवाज़ पे गौर किया...और हँसने लगीं...!

बात ही कुछ ऐसी थी...उस वक़्त मुझे बड़ा बुरा लगा,कि, मै इतनी संजीदगी से सवाल कर रही हूँ, और माँ हँस रही हैं...!
हमारे घर के क़रीब एक कुआ मेरे दादा ने खुदवाया था।उस कुए का पानी रेहेट से भर के घर मे इस्तेमाल होता था... उस कुए की तरफ़ जाने वाले रास्ते की शुरू मे माँ ने एक मंडवा बनाया था...उसपे चमेली की बेल चढी हुई थी... अब तो समझने वाले समझ ही गए होंगे, कि, मैंने कौनसा गीत सुना होगा और ये सवाल किया होगा...!
गीत था," दो बदन प्यार की आग मे जल गए, एक चमेली के मंडवे तले..."!

अम्मा: " अरे बच्चे...! ये तो गाना है...! "
मै: " लेकिन अगर उस मंडवे के नीचे कोई नही जला तो, दो बदन जल गए ऐसा क्यों गा रहे हैं, वो दोनों?"
अम्मा: "उफ़ ! अब मै तुझे कैसे समझाऊँ...! अरे बाबा, वो कुछ सच मे थोड़े ही जले...तू नही समझेगी..."
मै:" प्यार की आग, ऐसा क्यों गा रहे हैं? ये आग अपने लकडी के चूल्हेकी आग से अलग होती है ? उसमे जलने से मर नही जाते? और जलने पर तो तकलीफ़ होती है..है ना? मेरा लालटेन से हाथ जला था, तो मै तो कितना रोई थी... तो ये दोनों रो क्यों नही रहे...? गा क्यों रहे हैं? इनको तकलीफ नही हुई ? डॉक्टर के पास नही जाना पडा? मुझे तो डॉक्टर के पास ले गए थे...इनको इनकी माँ डॉक्टर के पास क्यों नही ले जा रही...? "

मेरी उम्र शायद ५/६ साल की होगी तब...लेकिन, ये संभाषण तथा सवालों की बौछार मुझे आज तलक याद है...
कुछ दिन पूर्व, अपने भाई से बतियाते हुए ये बात निकली तो उसने कहा,
" लेकिन आपको इतने बचपनमे 'मंडवे' का मतलब पता था? मुझे तो बरसों 'मंडवा' किस बला को कहते हैं, यही नही पता था...!"

कुछ ही साल पूर्व की एक बात याद आ रही है...एक ग़ज़लों-गीतों की महफिल मे जाना हुआ...गानेवाली हस्ती काफ़ी मशहूर थी ...मेरे कानों पे चंद अल्फाज़ पड़े,तो मैंने अपने साथ बैठी सहेली से पूछा," ये क्या गा रहा है...? गीत के बोल तुझे ठीक से सुनायी दे रहे हैं?"
सहेली: "हाँ..! तुझे नही दे रहे?"
मै :" बता तो क्या सुनाई दे रहे हैं..."
हम दोनों की बेहद धीमी आवाज़ मे खुसर पुसर हो रही थी...
सहेली:" ' प्यार परबत तो नही है मेरा लेकिन...' ये मुखडा है..."
मै :" क्या बात करती है...? ऐसा गा रहा है...? अरे ये तो कितने सालों तक मै समझती थी...एक दिन गीत के अल्फ़ाज़ बड़े ध्यान से सुने तो समझी कि, सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...! "
सहेली :" तो सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...?" मोह्तरेमा काफ़ी हैरान हुई...!

मै :" 'प्यार पर बस तो नही है मेरा लेकिन..' गीत का मुखड़ा इस तरह से है...! मेरा तो ठीक है..मै समझती थी, कि, प्यार पर्वत जितना महान नही है, फिरभी...प्यार करुँ या ना करुँ, इस तरह से कुछ मतलब होगा..लेकिन ये महाशय तो पेशेवर गायक हैं...! "
सहेली :" अरे बाबा...मै तो आजतक 'परबत ' ही समझती चली आ रही थी...!"

क्रमश

शनिवार, 2 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ५


कई किस्से ऐसे हैं, जो मै कभी लिख नही पाऊँगी...! कहना कुछ चाह रही थी, और कहा कुछ...! वो भी भरी महफिल मे!सुनने वाले तो पेट पकड़ के हँस रहे थे, और मुझे लग रहा था, कि, ज़मीं मे गड़ जाऊँ! तो ऐसी बातों को छोड़ के आगे बढ़ती हूँ...!

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

बोले तू कौनसी बोली ? ४: सहपरिवार ...!

काफ़ी साल हो गए इस घटनाको...बच्चे छोटे थे...हमारे एक मित्र का तबादला किसी अन्य शेहेर मे हो गया। हमारा घर मेहमानों से भरा हुआ था, इसलिए मेरे पतीने उस परिवार को किसी होटल मे भोजन के लिए ले जाने की बात सोची।

एक दिन पूर्व उसके साथ सब तय हो चुका था... पतीने उससे इतना ज़रूर कहा था, कि, निकलने से पहले, शाम ७ बजेके क़रीब वो एकबार फोन कर ले। घरसे होटल दूर था...बच्चे छोटे होने के कारण हमलोग जल्दी वापस भी लौटना चाह रहे थे।

उन दिनों मोबाईल की सुविधा नही थी। शाम ७ बजे से पहलेही हमारी land लाइन डेड हो गयी...! मेरे पती, चूंकी पुलिस मेहेकमे मे कार्यरत थे, उन्हों ने अपने वायरलेस ऑपरेटर को, एक मेसेज देके उस मित्र के पास भेजा," आप लोगों का सहपरिवार इंतज़ार है..."

हमारे घर क़रीब थे। ऑपरेटर पैदल ही गया। कुछ देर बाद लौटा और इनसे बोला," उन्हों ने फिर एकबार पूछा है..उन्हें मेसज ठीक से समझ नही आया..."
हम दोनों ही ज़रा चकित हो गए...मैंने इनसे कहा," आप एक चिट्ठी लिख दें तो बेहतर न होगा?"
"अरे, इतनी-सी बात है...उसमे क्या चिट्ठी लिखनी?"
इतना कह,इन्हों ने फिर एकबार अपनी बात उस ऑपरेटर के आगे दोहरा दी।
ऑपरेटर जाके लौट आया। हमारा फोन तो डेड थाही। तकरीबन ९ बजे उसमे जान आयी...एक हलकी-सी'ट्रिंग" की आवाज़ मुझे सुनाई पड़ी...! मैंने इन्हें झट अपने मित्र को फोन करने के लिए कहा...
इन्हों ने फोन घुमाया," अरे यार! क्या हो गया है तुम लोगों को? हम शाम ७ बजे से इंतज़ार कर रहे हैं...अब ९ बजने आए...! कहाँ रह गए हो? हमसे ज़्यादा तो तुझे जल्दी थी, बच्चों के कारण.....!"

" लेकिन तूने तो कहा था,कि, बस हमही लोग हैं...तूने ये औपचारिकता क्यों कर दी? और लोगों को क्यों बुला लिया?" हमारे मित्र ने कुछ शिकायत के सुर मे कहा पूछा।

"लेकिन तुझे किसने कह दिया कि, और लोगों को आमंत्रित किया है? बस तुम लोग हो और हम चार...! "मेरे पती ने कहा...

"अरे यार ! मैंने तो दो बार पुछवाया, कि, और कौन आनेवाला है, और तू कहता रहा,'सफारी पेहेन के बुलाया है'...अब सफ़ारी सूट तो औपचारिक आयोजनों मे पहना जाता है..मै तो कुरता पजामा पेहेन आनेवाला था...मेरी बीबी अब सफ़ारी पे इस्त्री कर रही है....!"

"अरे भैया , तुझे किसने कहा 'सफ़ारी' पेहेन के आने को....? अब जैसा है वैसा ही आजा..." इनकी आवाज़ शायद कुछ अधिक बुलंद हुई होगी, क्योंकि, उसकी पत्नी ने सुन ली...!

इनके मित्र ने जवाब दिया," यार, अब मेरी बीबी कह रही है, इतनी मुश्किल से तो ये सूट ढूँढा...कहाँ loft पे पडा मिला...अब यही पहनो...उसने इस्त्री भी की है...खैर, आते हैं हमलोग..बस और ५ मिनिट दे दो...!"
मुझे ये सँवाद सुनाई पड़ रहा था, और बात समझ मे आने लगी तो मेरी हँसी छूटती जा रही थी, और इन्हें गुस्सा चढ़ता जा रहा था..!

इन्हों ने ओपरेटर को बुला के डाँटना शुरू किया," कमाल है तुम लोगों की...इतना सीधा मेसेज समझ नही सकते..वायरलेस पे क्या समझते होगे? मै "सेह्परिवार" कहता चला जा रहा था, और तुम "सफ़ारी" सुन रहे थे?"

अब ये 'उच्चारण 'का भेद मुझे समझ मे आ रहा था... मराठी मे "सह परिवार" इसतरह उच्चारण होता है, जबकि, ये 'सेप्ररी वार "...इस तरह से उच्चारण कर रहे थे...और वो लड़का उसे 'सफ़ारी" सुन रहा था...!

मैंने अपने पती का गुस्सा शांत करने के ख़ातिर कहा," आप अपने आपको चंद रोज़/माह आगे कर के देखो...आपको ख़ुद इस बात पे हँसी आयेगी...तो अभी ही क्यों न हँस लें?"

खैर! मेरा वो प्रयास तो असफल रहा...लेकिन, ये सच है,कि, चंद रोज़ बाद इसी बात को याद कर हम सब खूब हँस लेते थे...जब कभी अपने अन्य दोस्तों को बताते....बडाही मज़ा लेके बताते...अब तो जब सफ़ारी की बात निकलती है, हम उसे 'सह परिवार' कहते हैं, और जब 'सह परिवार' की बात होती है तो उसे 'सफारी' कह लेते हैं....ख़ास कर मै ख़ुद!

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बोले तू कौनसी बोली ! ३

४/५ साल हो गए इस घटनाको...मै अपनी किसी सहेलीके घर चंद रोज़ बिताने गयी थी। सुबह नहा धोके ,अपने कमरेसे बाहर निकली तो देखा, उसकी सासुजी, खाने के मेज़ पे बैठ ,कुछ सब्ज़ी आदि साफ़ कर रही थीं.......१२ लोग बैठ सकें, इतना बड़ा मेज़ था...बैठक, खानेका मेज़ और रसोई, ये सब खुलाही था...

मै उनके सामने वाली कुर्सी पे जा बैठी...तबतक तो उन्हों ने सब्ज़ी साफ़ कर,आगेसे थाली हटा दी...मेरे आगे अखबार खिसका दिए और, फ़ोन बजा तो उसपे बात करने लगीं....

उसी दिनकी पूर्व संध्या को, मै मेरी अन्य एक सहीली के घर गयी थी...ये सहेली उस शेहेर के सिविल अस्पताल मे डॉक्टर थी। उसने बडीही दर्द नाक घटना बयान की...और उस घटना को लेके बेहद उद्विग्न भी थी...मुझसे बोली,
" कल मै रात की ड्यूटी पे थी....कुछ १० बजेके दौरान ,एक छोटी लडकी अस्पताल मे आयी...बिल्कुल अकेली...अच्छा हुआ,कि, मै उसे आपात कालीन विभाग के एकदम सामने खडी मिल गयी...उसकी टांगों परसे खून की धार बह रही थी....उम्र होगी ११ या १२ सालकी...

"मै उसके पास दौड़ी और उसे लेके वार्ड मे गयी...नर्स को बुलाया और उससे पूछ ताछ शुरू कर दी...उसके बयान से पता चला कि, उसपे सामूहिक बलात्कार हुआ था...जो उसे ख़ुद नही पता था...उसे समझ नही आ रहा था,कि, उन चंद लोगों ने उसके साथ जो किया,वो क्यों किया...इतनी भोली थी.....!अपने चाचा के घर गयी थी...रास्ता खेतमे से गुज़रता था...पढनेके लिए, अपने मामा और नानीके साथ शेहेर मे रहती थी...शाम ६ बजे के करीब लौट रही थी..."उस" घटना के बाद शायद कुछ घंटे बेहोश हो गयी...जब उसे होश आया तो सीधे हिम्मत कर अस्पताल पोहोंची....नानी के घरभी नही गयी....उसे IV भी चढाने लगी तो ज़रा-सा भी डरी नही...

मै जानती थी,कि,ये पोलिस केस है...अब इत्तेफाक से मेरे पती यहाँ पोलिस विभाग मे हैं,तो, मैंने उसकी ट्रीटमेंट शुरू करनेमे एक पलभी देर नही की...
"वैसेभी, हरेक डॉक्टर को प्राथमिक चिकित्चा के आधार पे ट्रीटमेंट शुरू करही देनी चाहिए...बाद मे पोलिस को इत्तेला कर सकते हैं..मैंने अपने पती को तो इत्तेला करही दी...लेकिन, अस्पताल मे भी पुलिस तैनात होती ही है...
वहाँ पे चंद मीडिया के नुमाइंदे भी थे..अपने साथ कैमरे लिए हुए...!

"यक़ीन कर सकती हो इस बातका, कि, उतनी गंभीर हालात मे जहाँ उस लडकी को खून चढाने की ज़रूरत थी...वो किसी भी पल shock मे जा सकती थी..मैंने ओपरेशन थिएटर तैयार करनेकी सूचना दी थी...उसे टाँके लगाने थे...और करीब ३० टांकें लगे...इन नुमाइंदों को उसका साक्षात् कार लेनेकी, उसकी फोटो खींचने की पड़ी थी...?
नर्स और वार्ड बॉय को धक्का देके..... पुलिस कांस्टेबल को भी उन ३/४ नुमाइंदों ने धक्का मार दिया..., उसके पास पोहोंच ने की कोशिश मे थे....! वो तो मैंने चंडिका का अवतार धारण कर लिया...उस बच्ची को दूसरे वार्ड मे ले गयी...स्ट्रेचर पे डाला,तो उसके मुँह पे चद्दर उढ़ा दी...वरना तो इसकी फोटो खिंच जानी थी ...!"

इतना बता के फिर उसने बाकी घटना का ब्योरा मुझे सुनाया...मै भी बेहद उद्विग्न हो गयी..कैसे दरिन्दे होते हैं...और हम तो जानवरों को बेकार बदनाम करते हैं...! जानवर तो कहीँ बेहतर...! पर मुझे और अधिक संताप आ रहा था, उन कैमरा लिए नुमाइंदों पे...! ज़रा-सी भी संवेदन शीलता नही इन लोगों मे? सिर्फ़ अपने अखबारों मे सनसनी खेज़ ख़बर छप जाय...अपनी तारीफ़ हो जाय, कि, क्या काम कर दिखाया ! ऐसी ख़बर तस्वीर के साथ ले आए...! सच पूछो तो इस किस्म की संवेदन हीनता का मेरा भी ये पहला अनुभव नही था...जोभी हो!

मै जिनके घर रुकी थी, रात को वहाँ लौटी तो मेरे मनमे ये सारी बातें घूम रही थीं...सुबह मेज़ पेसे जब अखबार उठाये,तो बंगाल मे घटी, और मशहूर हुई एक घटना का ब्योरा पढ़ने लगी...उस "मशहूर" हुए बलात्कारी को सज़ा सुनाई गयी थी, और चंद लोगों ने उसपे "दया" दिखने की गुहार करते हुए मोर्चा निकाला था...ये ख़बर भी साथ, साथ छपी थी...! दिमाग़ चकरा रहा था....!

इतनेमे मेरी मेज़बान महिला फोन पे बात ख़त्म कर मेरे आगे आके बैठ गयीं और बतियाने लगीं," आजकल रेपिंग भी एक कला बन गयी है..."

मैंने दंग होके उनकी ओर देखा...! क्या मेरे कानों ने सही सुना ?? मेरी शक्ल पे हैरानी देख वो आगे बोली," हाँ! सही कह रही हूँ...हमलोग तो लड़कियों को ये हुनर सिखाते हैं....!"
कहते,कहते वो, अपनी कुर्सी के पीछे मुड़ के बोलीं ," अरे ओ राधा...ठीक से रेप कर...अरे किसन...तुझे मैंने रेप करना सिखाया था ना...अरे ,तू मेरा मुँह क्या देख रहा है...सिखा ना राधा को...करके दिखा उसको...राधा, सीख ज़रा उससे...ठीकसे देख, फिर रेप कर...!"

मेरी तरफ़ मुडके बोली," कितना महँगा पेपर बरबाद कर दिया...! ज़रा मेरा ध्यान हटा और सब ग़लत रेप करके रख दिया...!"

अब मेरी समझमे आने लगा कि, उस बड़ी-सी मेज़ के कुछ परे, एक कोनेमे,( जो मुझे नज़र नही आ रहा था, और पानी चढाने की मोटर चल रही थी, तो कागज़ की आवाज़ भी सुनाई नही दे रही थी), उनके २ /३ नौकर चाकर , कुछ तोहफे कागज़ मे लपेट रहे थे!

उनके पोते का जनम दिन था ! जनम दिन पे आनेवाले "छोटे" मेहमानों के खातिर, अपने साथ घर ले जानेके लिए तोहपे, "रैप" किए जा रहे थे! ! इन मेज़बान महिला का उच्चारण "wrap"के बदले "रेप" ऐसा हो रहा था....और मै अखबार मे छपी ख़बर भी पढ़ रही थी....तथा,पूर्व संध्या को सुनी "उस" ख़बर का ब्योरा मनमे था...उस घटना के बारेमे ख़बर भी वहाँ के लोकल अखबार मे छपी थी..मैंने उसे भी पढा था..ग़नीमत थी,कि, लडकी का नाम पता नही दिया था...! ज़ाहिर था, उन्हें मिलाही नही था...!

लेकिन चंद पल जो मै हैरान रह गयी, उसका कारण केवल मेरे दिमाग़ का" अन्य जगह" मौजूद होना था...वरना, मुझे इन उच्चारणों की आदत भी थी.....!
क्रमश:

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

बोले तू कौनसी बोली! २ दुमजली बस!

मै स्कूल मे चार भाषाएँ सीखती रही..... चूँकि मेरी मातृभाषा मराठी नही थी, मै और अधिक सतर्कता से उस ओर गौर करती...उसमे मुझे मराठी गीत, या अन्य रेडिओपे होनेवाले कार्यक्रम, इनकी बड़ी सहायता मिली...इतनी,कि, मै हर भाषामे सबसे अधिक अंक प्राप्त कर जाती...मराठीके कुछ गीत जो लताजी के गाये हुए हैं, मै उन्हें ताउम्र भूलही नही सकती...!

अब ज़िन्दगीमे ऐसे मौक़े आए जब मुझे ये भाषा, किसी अमराठी भाषिक को सिखानी पड़ गयी...उनमे मेरे बच्चे तो शुमार थेही..उसके पहले मेरे पती शुमार हो गए...सेवा कालके पहले कुछ साल तो डेप्युटेशन पे गुज़रे...लेकिन जब होम कैडर मे लौटे,तो मराठी का इम्तेहान देना ज़रूरी हो गया....हम लोग ठानेमे थे उन दिनों...समय कम मिलता था, इन्हें सिखाने के लिए...जब कभी, किसी कारन, ठाने से मुम्बई जाना होता ,या फिर जब वापस लौटते, तो मै इनके पाठ शुरू कर देती...उन दिनों पहली बार मुझे समझ मे आया कि, मराठी, देशकी सबसे अधिक क्लिष्ट भाषा है! ! और बांगला सबसे अधिक आसान! ये तो मैंने शुक्र मनाया कि, मराठी और हिन्दी की लिपि देवनागरी ही है...न होती,तो पता नही" मेरा क्या होता(कालिया)?"

अब इस भाषा का व्याकरण मैंने तो ईजाद किया नही था...पर जब कभी इन्हें टोक देती तो ये मुझपे बरस पड़ते...! मानो ये टेढा व्याकरण मेरी ईजाद हो! ख़ैर, किसी तरह पास तो होही गए....वरना तनख्वाह मे बढोतरी रुक जाती!
अब बच्चों की भी बारी आ गयी थी...और हमारी पाठ्य पुस्तकें तो सीधे साहित्य सिखाने चल पड़ती हैं...बोली भाषा नही!

ऐसेही एक शाम याद है...कुछ इनके सहकारी, हमारे घर भोजनपे आए हुए थे। पती पुलिसमे , महाराष्ट्र कैडर के ..पत्नी डॉक्टर...सिविल अस्पताल मे नौकरी करती थीं...उन्हें भी मराठी की परीक्षा दिए बिना चारा नही था..!
जब इनके पती कोल्हापूर मे तबादले पे आए हुए थे, मोह्तरेमा को , अखबारों के मध्यम से मराठी सीखने की सूझ गयी...

बोली," मै सुबह चाय की चुस्की लेते,लेते मराठी अख़बार की हेड लाइन्स पढ़ ने लगी...छपा था," एक दुम जली बस गड्ढे मे गिरी "!( ये वाक्य ,वैसे तो मराठी मे था...यहाँ,पाठकों की सुविधा की खातिर हिन्दी मे लिख रही हूँ..)...
"अब मै हैरान..मैंने अपने अर्दली से पूछा,भैया, ये क्या चक्कर है...हमने हवाई जहाज़की दुमके बारेमे सुन रखा था...अब ये बस की कहाँ से दुम पैदा हो गयी......और पहले दुम जली, फिर वो जाके गड्ढे मे गिरी....!
"मैंने ने जब ये अर्द्लीको पढ़के सुनाया तो वोभी बौखला गया...ऐसी बात उसनेभी कभी सुनी थी ना पढी थी...!"

खैर, उस महिलाने जैसेही वो हेड लाइन सुनायी, मेरा हँसीके मारे बुरा हाल हुआ जा रहा था....लोग मुझे निहार रहे थे,कि, इसे हो क्या गया है,जो इतना अधिक हँसती चली जा रही है...!
मै थी,कि, उन्हीं के मूहसे वो अफ़साना गोई सुनना चाह रही थी...बिना दख़ल दिए...समझ रही थी, कि,किस ग़लत फ़हमी के कारण, ये अजीबो गरीब, और हास्यास्पद प्रसंग उभरा है...

खैर, उन्हों ने आगे सुनाया," मैंने उसे अखबार थमाते हुए कहा, 'देख ये, पढ़ इसे, और मुझे बता के ये क्या चक्कर है...पहले तो बसकी दुम जली और जाके गड्ढे मे गिरी...अर्द्लीने पढ़ा और अपनी हँसी को दबाते हुए बोला,'बाई साहेब, ये लिखा है,"दुमजली" लेकिन इसे मराठी मे पढ़ा जाएगा," दु मजली", मतलब दो मंज़िली...डबलडेकर बस!"

लिखा तो "दुमजली", इसी तरह से जोडकेही जाता है, पढ़ते समय, दु मजली पढा जाता है!

अब सारे मेहमान हँस हँस के लोटपोट होने लगे! !

इस वाक़या के बाद जब कभी मै अपने या किसी औरके बच्चों को मराठी या हिन्दी सिखाती और ग़लत संधि विच्छेद से पढ़ते सुनती, तो मेरा ये "कोड वर्ड"बन गया था..मै कहती रहती," दुमजली, दुमजली."...इशारा होता, अलग, अलग तरहसे संधि विच्छेद करके आज़माओ!!!

एक बार मुम्बई से नाशिक जा रही थी..बोगीमे काफ़ी सारे परिचित मित्र आदि बैठे मिले...बातोंमे बात चली तो मैंने, उन मे से सभी हिन्दी भाषिकों को " दुमजली" ये शब्द ,देवनागरीमे लिखके पढने के लिए दिया...सभीने उसे "दुमजली" ही पढ़ा...और हैरानीसे पूछा, "ये बताओ, पहले, कि, बस की दुम जली और फिर गड्ढे मे गिरी, ये लिखना कुछ ख़ास दर्शाता है क्या....."

जब सही संधि विच्छेद सामने आया तो पूरी बोगी ठहाकों से गूँज उठी....

भाषा भेदसे मैंने लोगों मे ज़बरदस्त मनमुटाव होते देखा है..लेकिन इन संस्मरणों मे सिर्फ़ मज़ेदार किस्से ही बयाँ करूँगी!

अगली बार कुछ और...ऐसे तो पिटारे भरे पड़े हैं!

क्रमश:

गुरुवार, 17 दिसंबर 2009

बोले तू कौनसी बोली..? १:मेरे घरमे भूत है..

"मेरे घरमे भूत है," ये अल्फाज़ मेरे कानपे टकराए...! बोल रही थी मेरी कामवाली बाई...शादीका घर था...कुछ दिनों के लिए मेरे पडोसन की बर्तनवाली,मेरे घर काम कर जाती...मेरी अपनी बाई, जेनी, कुछ ही महीनों से मेरे यहाँ कामपे लगी थी...उसी पड़ोस वाली महिला से बतिया रही थी......
एक बेटीकी माँ, लेकिन विधवा हो गयी थी। ससुराल गोआमे था..मायका कर्नाटक मे...एक बेहेन गोआमे रहती थी...इसलिए अपनी बेटीको पढ़ाई के लिए गोआ मे ही छोड़ रखा था...

मै रसोईको लगी बालकनी मे कपड़े सुखा रही थी...ये अल्फाज़ सुने तो मै, हैरान होके, रसोई मे आ गयी...और जेनी से पूछा," क्या बात करती है तू? तूने देखा है क्या?"

"हाँ फिर!" उसने जवाब मे कहा...

"कहाँ देखा है?" मैंने औरभी चकरा के पूछा !

"अरे बाबा, पेडपे लटकता है..!"जेनी ने हाथ हिला, हिला के मुझे बताया...!

"पेडपे? तूने देखा है या औरभी किसीने?"मै।

जेनी :" अरे बाबा सबको दिखता है...सबके घर लटकता है...! पर तू मेरेको ऐसा कायको देखती? तू कभी गयी है क्या गोआ?"

जेनी हर किसीको "तू" संबोधन ही लगाया करती..."आप" जैसा संबोधन उसके शब्दकोशमे तबतक मौजूद ही नही था.....!
मै:" हाँ, मै जा चुकी हूँ गोआ....लेकिन मुझे तो किसीने नही बताया!"

जेनी :" तो उसमे क्या बतानेका? सबको दिखता है...ऐसा लटका रहता है...." अबतक, मेरे सवालालों की बौछार से जेनी भी कुछ परेशान-सी हो गयी थी..

मै:" किस समय लटकता है? रातमे? और तुझे डर नही लगता ?" मेरी हैरानी कम नही हुई थी...वैसे इतनी डरपोक जेनी, लेकिन भूत के बारेमे बड़े इत्मीनान से बात कर रही थी..जैसे इसका कोई क़रीबी सबंधी, रिश्तेदार हो!

"अरे बाबा...! दिन रात लटकता रहता है...पर तू मेरे को ऐसा क्यों देख रही है? और क्यों पूछ रही है...?ये इससे क्या क्या डरने का ....?" कहते हुए उसने अपने हाथ के इशारे से, हमारे समंदर किनारेके घरसे आए, नारियल के बड़े-से गुच्छे की और निर्देश किया!
जेनी:"मै बोलती, ये मेरे घरमे भूत है...और तू पूछती, इससे डरती क्या??? तू मेरेको पागल बना देगी बाबा..."

अब बात मेरी समझमे आयी.....! जेनी "बहुत" का उच्चारण "भूत" कर रही थी !!!

उन्हीं दिनों मेरी जेठानी जी भी आयी हुई थीं..और ख़ास उत्तर की संस्कृति....! उन्हें जेनी का "तू" संबोधन क़तई अच्छा नही लगता था....!देहली मे ये सब बातें बेहद मायने रखतीं हैं...!
एक दिन खानेके मेज़पे बैठे, बैठे, बड़ी भाभी, जेनी को समझाने लगीं....किसे, किस तरह संबोधित करना चाहिए...बात करनेका सलीका कैसा होना चाहिए..बड़ों को आदरवाचक संबोधन से ही संबोधित करना चाहिए...आदि, आदि...मै चुपचाप सुन रही थी...जेनी ने पूरी बात सुनके जवाबमे कहा," अच्छा...अबी से ( वो 'भ"का भी उच्चारण सही नही कर पाती थी) , मै तेरे को "आप" बोलेगी.."

भाभी ने हँसते, हँसते सर पीट लिया....!
जेठजी, जो अपनी पत्नीकी बातें खामोशीसे सुन रहे थे,बोल उठे," लो, और सिखाओ...! क्या तुमभी...१० दिनों के लिए आयी हो, और उसे दुनियाँ भर की तेहज़ीब सिखाने चली हो!!!!"

क्रमश:

( शायद मेरे अज़ीज़ पाठक, जो मुझे कुछ ज़्यादाही गंभीर और "दुखी" औरत समझने लगे थे, उनकी कुछ तो "खुश" फ़हमी या "ग़लत" फ़हमी दूर होगी...असलियत तो ये है,कि, मै बेहद हँसमुख हूँ... और शैतानी के लिए मशहूर हूँ...अपने निकट परिवार और दोस्तों मे! )