हमारे विदर्भ आनेसे पूर्व, मेरी इस सहेलीके भतीजेने कोर्ट मे एक याचिका दायर कर दी थी। याचिका थी ...उसे स्कूल के बोर्ड ऑफ़ directors पे ले लिया जाय। वजेह ये,कि, उसके पिता ( मतलब मेरी सहेलीके भाई) उसपे थे। उनकी ह्त्या के बाद एक पद खाली हो गया। अन्य विश्वस्त ये नही चाहते थे। कारण ज़ाहिर था...उसपे किसीका अधिक विश्वास नही था। केस चलते,चलते ही हमारा विदर्भ मे तबादला हुआ। उस वक्त हमें उसी शेहेरमे, जहाँ हमलोग, बच्चे स्कूल मे थे,रह चुके थे, दोबारा, चंद महीनोंके लिए तबादलेपे आना हुआ था।
बिटिया उन दिनों अमेरिका जानेकी तैय्यारीमे लगी हुई थी। ज्यादातर मुम्बईमे रहती थी..बेटा तो पुनेमे पढाई पूरी कर रहा था...
हम दोबारा उसी शेहेर आए, तो मेरी सहेली काफ़ी खुश हो गयी। लेकिन स्कूल के इस मुक़द्दमे को लेके उसे परेशानी उठानी पड़ रही थी। उसका पती चूँकि एक विश्वस्त था, तथा बेहनोयीभी, उन्हें अक़्सर ज़िला न्यायलय के चक्कर काटने पड़ते।
दूसरी ओर, जिन पुलिस के अफसर उसके भाईके ह्त्या का केस देख रहे थे,वे उस भतीजेके काफ़ी करीब थे। इस अफसरकी पत्नी तथा इस भतीजेकी पत्नी, एकही क्लास मे पढ़ा करते थे। बल्कि, दुनियाँ छोटी होती है, ऐसा जो कहते हैं, इस बातका फिर न जानूँ कितवी बार मुझे अनुभव हुआ! !!
बात ये,कि, भतीजे की पत्नी निकली मेरी एक क्लास तथा हॉस्टल मेटकी भाईकी बेटी..! खैर, उस महिला के साथ तो, मेरी शादी के पश्च्यात कोई संपर्क रहा ही नही था...अस्तु.....
मै कई बार, इस पुलिस अफसरकी पत्नीसे , जो मेरी बोहोत इज्ज़त करती थी, इस सहेली के बारेमे चर्चा करती। ज़ाहिरन, उसे अपनी सहेली के पतीपे अधिक विश्वास होता। चर्चा केस को लेके तो होती नही...उसमे किसी तरीक़ेकी दख़ल अंदाज़ी का तो ,मेरी ओरसे, सवालही नही उठता था। लेकिन उसके अपने बच्चे इसी स्कूल मे पढ़ते थे।
सारे शेहेरमे इस केस को लेके चर्चे चल रहे थे। इस भतीजे की, अपने पिताकी तरह ,पोहोंच काफ़ी " ऊंची" थी...
उस परिवारकी पार्श्वभूमी को देखते हुए, इस सहेलीको तक़रीबन विश्वास था, कि, केस उसके के हक़ मे नही जायेगा...ऐसा" आवारागर्दी" करनेवाला कैसे स्कूल का विश्वस्त बन सकता है? लेकिन मेरे मनमे अपनी अलग शंकाएँ थीं...खैर !
हमारा तबादला तो विदर्भमे होही गया...वहीँ रहेते रहते,( मेरी बेटीके जानेके पश्च्यात), इस सहेली का एक दिन फोन आया," केस भतीजा जीत गया था...उसे विश्वस्त बना लिया गया था..."
स्कूल की ओरसे उच्च न्यायलय मे पुनश्च अपील की जा सकती थी...लेकिन,इस दरमियान उसका भतीजा ,उसके घर पोहोंचा और बडीही अदबसे उसे बोला,"बुआ, जो पीछे हुआ उसे भूल जाओ..मै आपकी बोहोत इज्ज़त करता हूँ...आप स्कूल मे काम जारी रखो।"
एक अन्य परिचित, जो हमें, तथा इन दोनों परिवारों से वाक़्फ़ियत रखते थे...उन्हों ने भी सलाह दी,कि, जब लड़का कह रहा है,कि, सब भूल जाओ..मेरे मनमे कुछ नही..मुझे एक मौक़ा दिया जाय.. ..तो क्यों नही?
उस परिचित के खयालसे तो वो बोहोत ही अच्छा लड़का था...वो उसे बचपनसे जानते थे...जब कि,ये उम्रदराज़ जनाब अच्छे खासे नामी गिरामी वकील थे...और अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर थे...खैर ! अपनी, अपनी धारणाएँ बन जाती हैं..सो उनमेसे यही एक..
फोन पे बात करते समय,मुझे मेरी सहेलीने ये सब बातेँ बतला दीं...येभी पूछ लिया कि, मेरा क्या विचार है...पूछा,तो मैंने साफ़,साफ़ बताया," मेरे विचारसे अब तुमने अपना इस्तीफा पेश कर देना चाहिए..या तो उच्च न्यायालय मे अपील कर देनी चाहिए..."
ये बात उसे बताते समय,मुझे ख़ुद बडाही अफ़सोस हो रहा था...जानती थी,कि, इस स्कूल को प्रगती पथपे लानेमे इसने कितनी अधिक मेहनत की है..ये स्कूल उसका मानो एक अपत्य था...उसे स्कूलसे बेहद लगाव था..स्कूल छोड़, किसी अन्य ज़िंदगी की वो कल्पनाभी नही कर सकती थी...
पर जवाबमे उसने कहा," अब मेरे पतीमे इतनी हिम्मत नही कि, हर दूसरे दिन मुम्बई दौडें..दुकानपे असर पड़ता है..फिर इतनी दौड़ भाग करकेभी निश्चिती तो नही,कि, फैसला हमारी तरफसे होगा...फिर उस लडकेने माफी भी माँग ली थी...और मुझे , एक मुख्याध्यापिका ही नही, बल्कि, प्रायमरी विभाग की director बनाना चाहता है...."
मेरा जवाब था," तो ठीक है..तुम्हें ये ठीक लगता है, तो ऐसाही करो..मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं..."
इसके आगे मै क्या कहती?
कुछ दिन और गुज़रे...दो तीन बार हम दोनोकी बात चीत भी हुई...सहेली ज़रा दुविधामे पड़ गयी थी.....क्योंकि अब उसे ये नही समझमे आ रहा था,कि, उसकी अधिकार कक्षा क्या है ! !बल्कि, ज़ाहिर हो रहा था,कि, अधिकार कक्षा तो कुछ हैही नही...लेकिन, वो लड़का दिलासा देता रहता..."कुछ दिन रुको,मै सब कुछ "chalk out "कर दूँगा"!
मैंने खामोश रहना शुरू कर दिया था.....
और एक दिन,देर रात सहेलीका फोन आया..इतनी रात गए जब फोन आया तो मेरा मन धकसे रह गया...तबतक मेरे पती BSF join कर चुके थे..कश्मीर मे चुनाव चल रहे थे...
फोन पे उसने कहा," मुझे देर रात स्कूल मे बुलाके, पिस्तौल दिखाके, स्कूल से इस्तीफेपे हस्ताक्षर करा लिए गए..मेरे सारे कागज़ात, जैसे डिग्री के तथा अन्य सब, स्कूल मेही पड़े रह गए...उसने रात को इसतरह से बुलाया जैसे, कुछ आवश्यक काम था...और हम पती पत्नी वहाँ पॉहोंच सलाह दें तो अच्छा रहेगा...हम स्कूटर पे जैसे थे पोहोंच गए...वहाँ तो कोई चाराही नही था..."
कहते, कहते वो रो पड़ी...रो तो मैभी पड़ी..उसकी मनोदशा समझ रही थी...लेकिन,मुझे मेरी सलाह याद ज़रूर आयी...गर उसने ,उसवक्त वो बात मान ली होती तो अपने सारे कागज़ात से तो हाथ धोना नही पड़ता...! खैर,मै इस बारेमे खामोश रही..
अबके वो ज़बरदस्त डिप्रेशन मे चली गयी...
कुछ ही दिनों बाद मेरा उस ओर जाना हुआ...उसकी बेटी जो UK मे स्थायिक हो गयी थी, उसने वहीँ पे शादी कर ली थी..उसका स्वागत समारोह भी था..और उसी तारीख को इसकी शादीका २५ वां सालगिरह...
शेहेर बँट-सा गया था..इसीके स्कूल की टीचर्स, जिन्हें,इसीने अपने स्टाफ पे रखा था, इसके समारोह मे आनेसे डरती थीं...
इसने किसी मशरूम निर्यात करने वालेसे contract कर, तकरीबन ३० लाख रुपये लगा दिए थे...मशरूम अपने फार्म हाउस पे और उसके पासमे जो और एक ज़मीनका टुकडा था,वहाँ उगाए थे...
मैंने पूछा," लेकिन इनकी बिक्री की क्या गारंटी?"
उसने कहा," अरे, सारा माल वही खरीद लेगा..हमें बस, उसके पाससे बीज लेने पड़े..इस ३० लाखके हमें ६० लाख मिलेंगे!!!!"
मैंने बड़ी हैरतसे कहा," लेकिन कुछ लिखा पढ़त हुई है?"
उसने कहा," उसके पाससे हमने बीज खरीदे,उसकी सारी रसीदें हैं..और xxxx जो हैं, उनकी अच्छी जान पहचान है..उन्हीने तो हमें भेजा वहाँ....देखा, मै अपने डिप्रेशन से कैसे बाहर निकल आयी..सकारात्मक सोचना चाहिए हमेशा..."
वो किसी "बाबा" के चक्कर मेभी पड़ गयी थी..जो अपने आपको साईं बाबा के अवतार कहते थे...उसका पती उनकी "पादुकाएँ" अपने सरपे टोकरीमे लिए एक घरसे दूसरे घर, जब उनके शेहरमे सत्संग होता, ले जाया करता..मुझे पता था,कि, ये अपनी पत्नीको खुश करनेके लिए हर मुमकिन कोशिश करेगा...उस बाबाके साथ तो अब उनका ,उसकी माँ समेत ( बच्चे नही),पूरा परिवार ही शामिल हो गया है...ये तो बात बादकी...
यही सब चलते,एक दिन मुझे उसका फोन आया, तो मैंने मशरूम के बारेमे पूछा...
वो बोली," अब तो तुम और,और उससे ज़्यादा तो तुम्हारे पती, हमें गुस्सा करही ही देंगे.....उसीके कारण मैंने फोन किया...उस दुकानदारने हमारे सारे मशरूम "रिजेक्ट" कर दिए...ये कहके कि, वो ख़राब हैं..उनके "स्टैण्डर्ड"पे खरे नही उतरते...
अब मेरे पती, तुम्हारे पतीसे आके मिलना चाहते हैं..वो कब मिल सकते हैं?"
मैंने कहा," तुम अपने पतीसे खुदही उनसे बात करनेके लिए कह दो..मै कुछ कहने जाऊँगी तो वो सबसे प्रथम मुझपे बरस पड़ेंगे..फिरभी,मै उनसे इतना बता दूँगी, कि तुम या तुम्हारे पती ,उनसे संपर्क करेँगे .."
मै जानती थी, अपने पतीकी प्रतिक्रिया...इन पती-पत्नी ने कोई लिखा पढ़त नही की थी...इस तरह के काम वो दोनों कई बार कर चुके थे और मै, हरबार आगे बढ़के किसी ना किसी तरह उनकी मुश्किलें हल करनेकी कोशिश किया करती...
जब मैंने अपने पती से सिर्फ़ इतना बताया कि, उसके पती उनसे मिलना चाहते हैं...वो मुझपे बरस पड़े...! लाज़िम था..लेकिन,गलती मेरी नही थी...और वो ख़ुद कई मामलोंमे उसके पतीकी सलाह लेते रहते थे...खैर!
उनकी मुलाक़ात तो हुई...हम उन दिनों मुम्बई, तबाद्लेपे आ चुके थे...
क्रमश:
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हृदयभेदी संस्मरण...
जवाब देंहटाएंशमाजी , आप कहानी को जीवंत कर देती हैं , बहुत दिनों बाद आप ने इस ब्लॉग पर लिखा है ? जल्दी से इस का दूसरा भाग भी लिख डालिए |
जवाब देंहटाएंशमा जी,
जवाब देंहटाएंसराहना की इसके लिए बहुत - बहुत धन्यवाद. इतना तो एहसास हो ही गया है कि किसी के दर्द को समझने के लिए अपने सीने में भी दर्द होना चाहिए जो आपमें है.