मंगलवार, 5 जनवरी 2010

बोले तू कौनसी बोली ? ६

अपने बचपन की एक यादगार लिखने जा रही हूँ...! या तो रेडियो सुना करते थे हम लोग या रेकॉर्ड्स......हँडल घुमा के चावी भरना और "his master's voice" के ब्रांड वाले ग्रामोफोन पे गीत सुनना...

एक रोज़ मैंने अपनी माँ से सवाल किया,
"अम्मा ! अपने कुए के पास कोई जल गया?"

अम्मा: " क्या? किसने कहा तुझसे...?कोई नही जला...! " मेरी बात सुनके, ज़ाहिरन, अम्मा काफ़ी हैरान हुईं !
मै : "तो फिर वो रेडियो पे क्यों ऐसा गा रहे हैं.....वो दोनों?"
अम्मा: " रेडियो पे? क्या गा रहे हैं?" अम्मा ने रेडियो की आवाज़ पे गौर किया...और हँसने लगीं...!

बात ही कुछ ऐसी थी...उस वक़्त मुझे बड़ा बुरा लगा,कि, मै इतनी संजीदगी से सवाल कर रही हूँ, और माँ हँस रही हैं...!
हमारे घर के क़रीब एक कुआ मेरे दादा ने खुदवाया था।उस कुए का पानी रेहेट से भर के घर मे इस्तेमाल होता था... उस कुए की तरफ़ जाने वाले रास्ते की शुरू मे माँ ने एक मंडवा बनाया था...उसपे चमेली की बेल चढी हुई थी... अब तो समझने वाले समझ ही गए होंगे, कि, मैंने कौनसा गीत सुना होगा और ये सवाल किया होगा...!
गीत था," दो बदन प्यार की आग मे जल गए, एक चमेली के मंडवे तले..."!

अम्मा: " अरे बच्चे...! ये तो गाना है...! "
मै: " लेकिन अगर उस मंडवे के नीचे कोई नही जला तो, दो बदन जल गए ऐसा क्यों गा रहे हैं, वो दोनों?"
अम्मा: "उफ़ ! अब मै तुझे कैसे समझाऊँ...! अरे बाबा, वो कुछ सच मे थोड़े ही जले...तू नही समझेगी..."
मै:" प्यार की आग, ऐसा क्यों गा रहे हैं? ये आग अपने लकडी के चूल्हेकी आग से अलग होती है ? उसमे जलने से मर नही जाते? और जलने पर तो तकलीफ़ होती है..है ना? मेरा लालटेन से हाथ जला था, तो मै तो कितना रोई थी... तो ये दोनों रो क्यों नही रहे...? गा क्यों रहे हैं? इनको तकलीफ नही हुई ? डॉक्टर के पास नही जाना पडा? मुझे तो डॉक्टर के पास ले गए थे...इनको इनकी माँ डॉक्टर के पास क्यों नही ले जा रही...? "

मेरी उम्र शायद ५/६ साल की होगी तब...लेकिन, ये संभाषण तथा सवालों की बौछार मुझे आज तलक याद है...
कुछ दिन पूर्व, अपने भाई से बतियाते हुए ये बात निकली तो उसने कहा,
" लेकिन आपको इतने बचपनमे 'मंडवे' का मतलब पता था? मुझे तो बरसों 'मंडवा' किस बला को कहते हैं, यही नही पता था...!"

कुछ ही साल पूर्व की एक बात याद आ रही है...एक ग़ज़लों-गीतों की महफिल मे जाना हुआ...गानेवाली हस्ती काफ़ी मशहूर थी ...मेरे कानों पे चंद अल्फाज़ पड़े,तो मैंने अपने साथ बैठी सहेली से पूछा," ये क्या गा रहा है...? गीत के बोल तुझे ठीक से सुनायी दे रहे हैं?"
सहेली: "हाँ..! तुझे नही दे रहे?"
मै :" बता तो क्या सुनाई दे रहे हैं..."
हम दोनों की बेहद धीमी आवाज़ मे खुसर पुसर हो रही थी...
सहेली:" ' प्यार परबत तो नही है मेरा लेकिन...' ये मुखडा है..."
मै :" क्या बात करती है...? ऐसा गा रहा है...? अरे ये तो कितने सालों तक मै समझती थी...एक दिन गीत के अल्फ़ाज़ बड़े ध्यान से सुने तो समझी कि, सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...! "
सहेली :" तो सही अल्फ़ाज़ क्या हैं...?" मोह्तरेमा काफ़ी हैरान हुई...!

मै :" 'प्यार पर बस तो नही है मेरा लेकिन..' गीत का मुखड़ा इस तरह से है...! मेरा तो ठीक है..मै समझती थी, कि, प्यार पर्वत जितना महान नही है, फिरभी...प्यार करुँ या ना करुँ, इस तरह से कुछ मतलब होगा..लेकिन ये महाशय तो पेशेवर गायक हैं...! "
सहेली :" अरे बाबा...मै तो आजतक 'परबत ' ही समझती चली आ रही थी...!"

क्रमश

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