मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

क्यों होता है ऐसा...? २

एक और कहावत का मतलब मुझे किसी उम्रतक समझमे नही आता था...." चोरकी दाढी मे तिनका!" सोचती थी, चोरकी हमेशा दाढी होती होगी? जिसकी नही वो चोरी नही करता....तब तो चोरको पहचान लेना आसान....दाढ़ी वाले लोगोंसे बचके रहना चाहिए....कैसा बचपना था....! पर फिरभी एक बात नही समझ आती,कि, चोर अपनी दाढी मे तिनका क्यों लगाता होगा? ......उसे पहचान लेना और आसान....!

खैर! ये हुई बचपनकी बातें...मुहावरे हर भाषामे तकरीबन एक जैसे होते हैं...वजह: इंसानी ज़हनियत दुनियामे कहीँ जाओ, एक जैसीही होती है...!

मै झूट के बारेमे बता रही थी। उसी बातपरसे एक और बचपनका क़िस्सा बताती हूँ...इस क़िस्सेको बरसों बाद मैंने अपनी दादी को बताया तो वो एक ओर शर्मा, शर्मा के लाल हुई, दूसरी ओर हँसतीं गयीं....इतना कि आँखों से पानी बहने लगा...

मेरी उम्र कुछ रही होगी ४ सालकी। मेरा नैहर गांवमे था/है । बिजली तो होती नही। गर्मियों मे मुझे अपनी दादी या अपनी माँ के पलंग के नीचे लेटना बड़ा अच्छा लगता। मै पहले फर्शको गीले कपडेसे पोंछ लेती और फ़िर उसपे लेट जाती....साथ कभी चित्रोंकी किताब होती या स्लेट । स्लेट पे पेंसिलसे चित्र बनाती मिटाती रहती।

ऐसीही एक दोपहर याद है.....मै दादीके पलंग के नीचे दुबकी हुई थी....कुछ देर बाद माँ और दादी पलंग पे बैठ बतियाने लगी....उसमेसे कुछ अल्फाज़ मेरे कानपे पड़े...बातें हो रही थी किसी अनब्याही लड़कीके बारेमे....उसे शादीसे पहले बच्चा होनेवाला था...उन दोनों की बातों परसे मुझे ये एहसास तो हुआ,कि, ऐसा होना ठीक नही। खैर!

मेरी माँ, खेतपरकी कई औरतोंकी ज़चगी के लिए दौड़ पड़ती। हमारे घरसे ज़रा हटके दादा ने खेतपे काम करनेवालोंके लिए मकान बनवा रखे थे। वहाँसे कोई महिला माँ को बुलाने आती और माँ तुंरत पानी खौलातीं, एक चाकू, एक क़ैचीभी उबालके साथ रख लेती...साथमे २/४ साफ़ सुथरे कपडेके टुकड़े होते....फिर कुछ देरमे पता चलता..."उस औरत" को या तो लड़का हुआ या लडकी....

एक दिन मै अपने बिस्तरपे ऐसेही लोट मटोल कर रही थी...माँ मेरी अलमारीमे इस्त्री किए हुए कपड़े लगा रही थीं....
मुझे उस दोपेहेरवाली बात याद आ गयी..और मै पूछ बैठी," शादीके पहले बच्चा कैसे होता होता है?"
माँ की और देखा तो वो काफ़ी हैरान लगीं...मुझे लगा, शायद इन्हें नही पता होगा...ऐसा होना ठीक नही, ये तो उन दोनोकी बातों परसे मै जानही गयी थी...
मैंने सोचा, क्यों न माँ का काम आसन कर दिया जाय..मै बोली," कुछ बुरी बात करतें हैं तो ऐसा होता है?"
" हाँ, हाँ...ठीक कहा तुमने..."माँ ने झटसे कहा और उनका चेहरा कुछ आश्वस्त हुआ।
अब मेरे मनमे आया, ऐसी कौनसी बुरी बात होगी जो बच्चा पैदा हो जाता है.....?
फिर एकबार उनसे मुखातिब हो गयी," अम्मा...कौनसी बुरी बात?"

अब फ़िर एकबार वो कपड़े रखते,रखते रुक गयीं...मेरी तरफ़ बड़े गौरसे देखा....फ़िर एक बार मुझे लगा, शायद येभी इन्हें ना पता हो...मेरे लिए झूट बोलना सबसे अधिक बुरा कहलाया जाता था...
तो मैंने कहा," क्या झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है"?
"हाँ...झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है...अब ज़रा बकबक बंद करो..मुझे अपना काम करने दो.."माँ बोलीं...

वैसे मेरी समझमे नही आया कि , वो सिर्फ़ कपड़े रख रही थीं, कोई पढ़ाई तो कर नही रही थी...तो मेरी बातसे उनका कौनसा काम रुक रहा था? खैर, मै वहाँसे उठ कहीँ और मटरगश्ती करने चली गयी।

इस घटनाके कुछ ही दिनों बादकी बात है...रातमे अपने बिस्तरमे माँ मुझे सुला रहीं थीं....और मेरे पेटमे दर्द होने लगा...हाँ! एक और बात मैं सुना करती...... जब कोई महिला, बस्तीपरसे किसीके ज़जगीकी खबर लाती...वो हमेशा कहती,"...फलाँ, फलाँ के पेटमे दर्द होने लगा है..."
और उसके बाद माँ कुछ दौड़भाग करतीं...और बच्चा दुनियामे हाज़िर !

अब जब मेरा पेट दुखने लगा तो मै परेशाँ हो उठी...मैंने बोला हुआ एक झूट मुझे याद आया...एक दिन पहले मैंने और खेतपरकी एक लड़कीने इमली खाई थी। माँ जब खाना खानेको कहने लगीं, तो दांत खट्टे होनेके कारण मै चबा नही पा रही थी...
माँ ने पूछा," क्यों ,इमली खाई थी ना?"
मैंने पता नही क्यों झूट बोल दिया," नही...नही खाई थी..."
"सच कह रही है? नही खाई? तो फ़िर चबानेमे मुश्किल क्यों हो रही है?" माँ का एक और सवाल...
"भूक नही है...मुझे खाना नही खाना...", मैंने कहना शुरू किया....

इतनेमे दादा वहाँ पोहोंचे...उन्हें लगा शायद माँ ज़बरदस्ती कर रही हैं..उन्होंने टोक दिया," ज़बरदस्ती मत करो...भूक ना हो तो मत खिलाओ..वरना उसका पेट गड़बड़ हो जायेगा"....मै बच गयी।
वैसे मेरे दादा बेहद शिस्त प्रीय व्यक्ती थे। खाना पसंद नही इसलिए नही खाना, ये बात कभी नही चलती..जो बना है वोही खाना होता...लेकिन गर भूक नही है,तो ज़बरदस्ती नही...येभी नियम था...

अब वो सारी बातें मेरे सामने घूम गयीं...मैंने झूट बोला था...और अब मेरा पेटभी दुःख रहा था...मुझे अब बच्चा होगा...मेरी पोल खुल जायेगी...मैंने इमली खाके झूट बोला, ये सारी दुनियाको पता चलेगा....अब मै क्या करुँ?
कुछ देर मुझे थपक, अम्मा, वहाँसे उठ गयीं...

मै धीरेसे उठी और पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चा हुआ तो मै इसे पानीसे बहा दूँगी...किसको पता नही चलेगा...
लेकिन दर्द ज्यूँ के त्यूँ....एक ४ सालका बच्चा कितनी देर बैठ सकता है....मै फ़िर अपने बिस्तरमे आके लेट गयी....
कुछ देर बाद फ़िर वही किया...पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चे का नामोनिशान नहीं...

अबके जब बिस्तरमे लेटी तो अपने ऊपर रज़ाई ओढ़ ली...सोचा, गर बच्चा हो गया नीन्दमे, तो रज़ाई के भीतर किसीको दिखेगा नही...मै चुपचाप इसका फैसला कर दूँगी...लेकिन उस रात जितनी मैंने ईश्वरसे दुआएँ माँगी, शायद ज़िन्दगीमे कभी नही..
"बस इतनी बार मुझे माफ़ कर दे...फिर कभी झूट नही बोलूँगी....मै इस बच्चे का क्या करूँगी? सब लोग मुझपे कितना हँसेंगे? ".....जब, जब आँख खुलती, मै ऊपरवालेके आगे गुहार लगाती और रज़ाई टटोल लेती...

खैर, सुबह मैंने फ़िर एकबार रज़ायीमे हाथ डाला और टटोला...... कुछ नही था..पेट दर्द भी नही था...ऊपरवालेने मेरी सुन ली...
उसके बाद मैंने शायदही कभी झूट बोला...एकबार शायद...वोभी झूट नही था...शायद टालमटोल थी..लेकिन, उस कारण मेरे भाईको पिटते देखा, माँ के हाथों, तो मेरी निगाहें उठ नही पायीं और मैंने मान लिया कि, मैंने ठीकसे नही देखा...जोभी था...जल्दबाज़ी की..वो किस्सा कहूँगी तो बोहोत अधिक विषयांतर हो जाएगा.....

इतना सारा लिख गयी, उसकाभी कारण है...जब मुझे झूट कहनेके लिए ज़बरदस्ती की जाने लगी, तो मेरे मनमस्तिष्क पे उसका गहरा असर होने लगा...शायद मुझे उसवक्त नही समझमे आयी ये बात...बड़ी तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी थी...लेकिन, एक बोझ, एक डर का साया, मेरे अतराफ़ मँडराने लगा....
अपने नैहर आती,तो मुझे उनसे ये बात कहते हुए बेहद शर्म आती कि, मुझे अपने ससुरालमे झूट बोलना पड़ता है....
और येभी डर रहता कि , मुझे कई चीज़ों के बारेमे हिदायत देके भेजा गया है..." तुम ये ना कहना, तुम ऐसे ना बताना...कहीँ जाके तुम ऐसा कह दो"...हज़ारों बंदिशें...

असर ये कि, मै बेहद खामोश हो जाती...अपने आपको अपने कमरेमे बंद रखती...गुमसुम-सी...मेरे दादा भाँप लेते कि, कहीँ तो कुछ है...मुझसे पूछ बैठते,"क्यों बच्ची ,तू इतनी खामोश, अकेली-सी रहती है? कितनी घूमा फिरा करती थी....सायकल चलाया करती थी...किताबों मेसे पढ़के सुनाया करती....गाने बजते रहते...बल्कि, मै रेडियो बंद कर देता....फूल सजाती...बगीचेमे काम करती...शादी क्या हो गयी, तू तो एकदमसे तब्दील हो गयी...!"

उनके चेहरेपे साफ़ परेशानी झलकती... मै औरभी खिज जाती...ये सोच कि, मेरा अपनी उदासी छुपनेका प्रयास असफल हो रहा है....
उनपे बरस पड़ती," दादा, आप क्यों मेरे पीछे पड़ जाते हो? मुझे नीन्द्की कमी है, बस.... मै इसलिए सोती रहती हूँ...और वहाँ मुझे किताबे पढ़नेका मौक़ा नही मिलता, तो यहाँ पढ़ती हूँ..."

बेचारे, छोटा-सा मुँह ले हट जाते...आज जब वो चेहरा निगाहों के सामने आता है तो मेरी आँखों से सावन की झडी बहने लगती है....सबकुछ धुन्दला जाता है...

क्या से क्या हो गया....देखभी रही थी कि, क्या कर रही हूँ..अपनेआपको झूटका छोटी छोटी मात्रायों मे ज़हर दिए जा रही हूँ...जैसे कोलेरा आदीसे लड़नेके लिए उसीके जीवाणु कम मात्रामे दिए जाते हैं...
मेरे मस्तिश्क्मे ये ज़हर पैवस्त हो रहा था...कभी तो इसका दुष्परिणाम होगा...कहीँ तो होगा...क्योंकि इस बातको ना मेरा मन स्वीकार रहा था ना दिमाग़.....

मेरी सहेत पे इसका असर होने लगा था...जो मुझे तब नही नज़र आया....हज़ार दूसरे कारण मेरे आगे आते रहे, लेकिन आज जब मुड़ के देख रही हूँ, तो सबसे बड़ा कारण यही था....जीवन मूल्य इतने अधिक तेज़ीसे बदले जा रहे...और मै उनके साथ समझौता नही कर पा रही थी....

कभी मनमे आता, झूट बोलनेसे तो बेहतर है, कुछ बातें कहीही ना जाएँ....लेकिन उसके अपने परिणाम हुए....और ज़्यादा शक के घेरेमे मै आ जाती....ये दुविधा मेरे लिए एक मर्ज़ बनती चली गयी...

आज फिर एकबार अपनाही विश्लेषण करने निकल पड़ी हूँ...एक अकेले सफर पे...
जब शुरू किया लिखना तब शायद, इस विषय पे इतनी गंभीरतासे लिखनेका इरादा नही था...लेकिन विषयही मैंने गंभीर चुन लिया....!
अब देखना है मेरे पाठक चहेते, जो "दुविधा" से बँधे थे, वो इस मालिका से बँधते हैं या नही....इतनी लम्बी तो ये खिंचेगी नही...४६/४७ कड़ियाँ नही होंगी...यही कोई ५/७......
लिखनेका मकसद सिर्फ़ एक है....अपने आपका हेतुपुरसपर निरिक्षण और पाठकों से एक सच्चा संवाद...निष्कर्ष चाहे जो निकले...
क्रमशः

6 टिप्‍पणियां:

  1. अपने आप को खंगालना भी कभी कभी जरूरी होता है....

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  2. bahut sundar, aapkee shailee itnee dharaprawh hai ki padhtaa chala jaataa hoon , aglee kadi kaaintjaar rahehaa

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  3. bahut sundar, aapkee shailee itnee dharaprawh hai ki padhtaa chala jaataa hoon , aglee kadi kaaintjaar rahehaa

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  4. First, thanks for comment on ghazal. Now, your prose is too strong and if you work a liitle harder, you may get the height of a top novelist or story writer. Though I am a book worm and have another taste, but I read the article twice. I am not praising you in reply, you have guts to be praised. you have asked a little enquiry, if required, please send you E-mail I.D. Be sure, it will not be misused.

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