रविवार, 12 अप्रैल 2009

ये कहाँ आ गए हम...? ५

मेरी एक पलभी आँख नही लगी...लेकिन कोई थकान नही थी....एक बच्चों की-सी ताज़गी और नए दिनका इंतज़ार...
कई बार मनमे आया निम्मीको गुदगुदाके जगा दूँ...फिर लगा, नही....मेरा मन एक सपना बुन रहा है...उसे जगाके गर ये सपना टूट गया तो??मैंने तो वंदन के दिलो दिमागमेभी एक ख्वाबका बीज बो दिया है...उसके कोंपल बननेसे पहले मुझे उखाड़ फेंकना पडा तो.....?
तो वंदन शायद ज़िंदगीभर निम्मीके आगे नही आयेगा...शायद मेरे आगेभी नही...एक दर्द , जो वो भूलना चाहेगा, मेरेसे मिलना उसे उसीकी याद दिला देगा....
पर मैंने ऐसे नकाराक्त्मक ख़याल दिलमे नही लाने चाहियें....मै नही तो शायद उसके माँ-बाबूजी( मतलब उसके सास-ससुर ), या उसकी अपनी बेटियाँ उसे मना सकती हैं....उसे सोचनेपे मजबूर कर सकती हैं...माँ-बाबूजीको, उनके बुढापेमे एक बेटा मिल जाएगा....वंदन के रूपमे...क्या इतनाभर काफ़ी नही...? उसे तुंरत निर्णय लेनेके लिए तो कोई नही कहेगा...सोच तो सकती है...

अपने पास लेटी ,अपनी सखीपे एक निगाह डाली मैंने....उसका पहला प्यार तो भुलानेके लिए कोई नही कह रहा...उसकी जगह तो कोई नही माँग रहा...बल्कि, उसकी उस भावनाकी हर किसीको कद्र है...
मूँदी हुई आँखें....आँखों के नीचे हल्की-सी कालिमा...मैंने निम्मीको गौरसे निहारा....इतनी मासूम मुझे वो कभी नही लगी थी...और शायद इतनी मायूसभी...समय हर घाव मिटाता है...पर देता क्यों है...? इसने क्या बिगाडा था? या माँ-बाबूजीने...? या उसकी औलादने??
इनमेसे किसी सवालका ना मेरे पास उत्तर था ना दुनियाके किसी ज्ञानी ध्यानीके पास...अपना नसीब....और क्या कहेँ?

निम्मीने एक करवट लेनी चाही शायद और उसका हाथ मेरे हाथपे आ पडा...एक झटकेसे जाग गयी...ऐसे जागी मानो किसी सपनेसे जागी हो...बड़ी हैरत से उसने मुझे एक आध पल देखा...बोली'" ओह! भूलही गयी थी कि तेरे घर सोयी हूँ...!और मै कब सो गयी? तू कब आयी सोनेके लिए? वंदन कबतक था? मै तो बस कुछ देर लेटने आयी...तू मेरे पास बैठी थी...और आगेका कुछ यादही नही...मैंने तो उसे बाय भी नही किया...चल, वो सब छोड़...तू क्यों ऐसे देख रही है मुझे....? क्या बात है? कितने बजे हैं? साढ़े छ:...ज्यादातो नही...तू बैठी हुई क्यों है? चायके लिए मेरा इंतज़ार कर रही थी क्या?? तूने ले लेनी चाहिए थी...मेरे साथ फिर एक कप....अरी बोलना....क्यों घूरे चली जा रही है...?"

अब मेरा दिल धक् से रह गया...वो वक्त आ गया था, जब मुझे उसके आगे कुछ उजागर करना था...मैंने अपने अल्फाज़ भी अभी चुने नही थे...उधेड़ बुनमेही लगी हुई थी...और ये सवालपे सवाल किए जा रही है....चाय बनाते, बनाते अपने शब्द चुन लूँ? और ये साथ आके खडी हो गयी तो...?

"निम्मी...तू.....और सोना तो नही चाह रही...मतलब उठनेकी कोई जल्दी नही है....आरामसे उठ...छुट्टियाँ मनाने आयी है...जल्दी क्या है...?" मैंने अपनी इच्छाके पूरी विपरीत बात कही...मै तो कबसे चाह रही थी कि, ये जग जाय...और अब अचानक से जाग गयी तो मै बौखला रही हूँ...

"नही तो...और कितना सो लूँगी...? मुझे तेरे साथ गप लगानी है...ऐसे मौके बार, बार थोडेही आएँगे?अच्छा चल...मै ज़रा मुँह धो लूँ....बस दो चार मिनट देदे...तूने ब्रश कर लिया? या चायके बाद करेगी? मै तो सुबह की चाय बिना ब्रश किए लेती हूँ...फिर सब कुछ....तू पानी तो चढ़ा...मै ये गयी और ये आयी..."कहते हुए निम्मी पलंग परसे उतर आयी और स्नान गृहमे घुस गयी...
मैंने रसोईकी और अपना रुख किया....किसीभी पल निम्मी बाहर आयेगी....मुझे खोयी-सी देख फिर पूछेगी...उधर वंदन इंतज़ार कर रहा होगा...वो सुबह्के नाश्तेके लिए आयेगा या नही....? निम्मीके जवाब पे मुनहसर होगा....गर उसकी द्विधा मन:स्थिती होगी तो शायद वो आना नही चाहेगा....

मै चायके उबलते पानीको घूरे चली जा रही थी और निम्मी पोहोंच गयी...
"अरे क्या कर रही है...?सुबह्से देख रही हूँ, तेरा ध्यान किसी औरही बातमे है...पानी खौलता जा रहा है और तुझे तो जैसे नज़रही नही आ रहा...चल हट...आज मै बनाती हूँ चाय....या तो बिना पत्तीकी बनाएगी या बिना दूधकी...आसार तो ऐसेही नज़र आ रहे हैं...पतिदेवका कुछ फोन आ गया क्या..??"
कहते, कहते उसने चायके प्याले भरभी दिए...ट्रे पकड़ मुझे बरामदेकी ओर ले चली....

कूर्सीपे आरामसे बैठ फिर एकबार मुझसे मुखातिब हुई," हाँ अब बोल...क्या बात है जो तू छुपाये जा रही है...? रातमे ऐसा क्या घट गया कि मेरी सखीके चेहरेपे हवाइयाँ उड़ रही हैं...अरी बोलना......?"
ये वही पुरानेवाली बेसब्र निम्मी थी....और मै संजीदा....

उसकी बाँह पे मैंने अपना हाथ रखा और बडेही स्नेह्से उसे भींच लिया....फिर अपने गालोंपे लगा लिया....और मेरे मूहसे कुछ अल्फाज़ बेसाख्ता निकल्ही पड़े...जिन्हें अब रोकना मुश्किल भी था और लाज़िम भी नही था...ऐसा करना वंदन पेभी एक दबाव बनाये रखता.....

मैंने उसकी आँखोंमे गहरे झाँकते हुए कहा, "निम्मी,तुझसे कुछ संजीदगीसे बात करना चाह रही हूँ.....ज़्यादा भुमिका नही बनाउँगी...कुछ बातें माँ-बाबूजीसे कर चुकी हूँ......अब तुझसे...कोई दबाव नही...सब निर्णय तेरेही हक़्मे होंगे, तेरीही मर्ज़ीके मुताबिक ...हम सभी तुझसे बेहद प्यार करते हैं.....बस इस बातको हमेशा अपने मनमे गाँठ बाँधके रख ले...."

"पर तू तो पहेलियाँ ही बुझाए जा रही है...मै विचलित हुए जा रही हूँ...अब बोलभी दे...जोभी मनमे है...मेरा वादा रहा कि, मै किसीभी बातको ना तो अन्यथा लूँगी या बुराही मानूँगी ....मेरे माँ-बाबूजी, तू, तेरे मेरे बच्चे, ये सब मेरे खैरख्वाह हैं...मेरा बुरा सोचही नही सकते...तो अब बता दे..."उसने खाली प्याला मेज़पे रख दिया...और मेरी शकल की ओर अपलक देखने लगी....

अब मेरे आगे कोई चाराही नही था...ना अधिक भूमिका बनानेका प्रयोजन....मै बस बोलते चली गयी....उसको पूर्व संध्यामे हुई माँ-बबूजीके साथकी बातें...बादमे वंदन के साथ हुई बातें...मेरा अपना विचार..सबकुछ, एकही साँस मे बता दिया...

निम्मी एकदम खामोश हो गयी...मैंने इसी प्रतिक्रियाकी आरम्भमे उम्मीद की थी...ना जाने उसकी आँखोंके आगेसे क्या, क्या गुज़र जायेगा...एक बिखरी ज़िंदगीके सँजोए सपने...उनका टूटना और अब फिरसे एक निर्णय...जबकि वो शायद किसी गंभीर निर्णय लेनेकी अवस्थामेही नही थी...

कुछही पल बीते, जिसके पहले कि वो कुछ बोली..पर लगा बोहोत वक्त गुज़रा....उसने मेरा हाथ अपने हाथों मे कसके पकड़ा और फिर उठके मुझे अपने सीनेसे भींच लिया.....सिसिकियाँ फूट पड़ीं.....मै उसकी पीठ सहलाती रही...एक बार लगा, माँ-बाबूजीको पहले बुला लिया होता तो शायद बेहतर होता...मैंने उसका चेहरा अपने हाथों मे लेके उससे पूछा," निम्मी, क्या तू चाहती है, कि, इसवक्त माँ-बाबूजी तेरे साथ हों? या तेरी अपनी बेटियाँ? तुझे कोई अपराधबोध तो नही हो रहा...गर ऐसा..."

वो मुझे फिर एकबार कसके बिलग गयी,बोली," नही रे....ऐसा सोचभी कैसा सकती है तू...मै तो गदगद हो गयी कि, मेरे अपनोंने मेरे लिए कितना कुछ सोचा...ऐसा किसका नसीब होता है, जो मेरा है..ऐसे सास-ससुर, ऐसे बच्चे, ऐसी सहेली और एक ऐसा बचपनका दोस्त जो मुझेही नही, मेरे ससुरालको अपनाने खड़ा है....
"मै ख़ुद लज्जित हूँ कि, मेरी तो इतनी हैसियतभी नही..... सब मेरा इतना ख़याल करें...मेरे सुखी भवितव्य के आगे अपना भवितव्य भुला दें.......मै तो वंदन काभी बड़प्पन कहूँगी कि, उसने अपने परिवारसे बात किए बिना अपना निर्णय सुना दिया...और उसपे वो अडिग रहेगा येभी जानती हूँ.....नतमस्तक हूँ इन सभीके आगे.....निर्णय अब मै मेरे हाथमे नही, आप सभीके हाथमे छोड़ देती हूँ.....जानती हूँ, एकबार मै ग़लत हो सकती हूँ, पर मेरे अपने नही...आँख मूँदके विश्वास करती हूँ...
"हाँ....मेरे पतीको भुलाना आसान काम नही...बस वो एक उम्मीद मुझसे कभी मत रखना...लेकिन आगे क्या होगा ये तो नही जानती...पर ये वादा करती हूँ, कि वो वक्त जो मैंने अपने पहले प्यारके साथ बिताया, मै भूल नही पाऊँगी...."
निम्मी काफ़ी देर भावावेशमे बोलती जा रही थी...और मुझे एक राहत मिलती जा रही थी...उसने वंदन को नकारा नही था.....इस वक्त वंदन के लिए इतनाही काफ़ी था...कुछ देर उसे शांत करके मैंने स्नानके लिए भेज दिया...और फिर सबसे पहले वंदन को फोन कर अपने घर बुला लिया...ताकि माँ-बाबूजी भोजनके समयतक पोहोंचें तो इन दोनोंकी कुछ तो आपसमे बात चीत हो सके.....

मुझे ये काम जितना कठिन लगा था, उतना नही था....अब आगे काफ़ी कुछ वंदन के रवैय्येपे मुनहसर था..उसकी संजीदगीपे काफी दारोमदार थी....
वंदन, निम्मी नहाके निकली उसके पहलेही मेरे घर पोहोंच गया....बल्कि उन दोनोको थोड़ा नाश्ता और कॉफी देनेके बादही मै नहाने चली गयी और शांती-से स्नान किया...चाह रही थीकि, उन दोनोको अकेलेमे बातचीत का मौक़ा मिले.....

खाना चाहे घरपे बना लें...चाहे इन दोनोंको बाहर भेज दें...माँ-बाबूजीके साथ एकबार वंदन को अब मिलवानाही था....एक बेटा पाके, वो खुशही होंगे....मैंने सोचा था, उससे कहीँ अधिक आसानीसे घटनाक्रम घट गया था...निम्मीका मुझपे, अपने परिवारपे , अटल विश्वास देख मै निहाल हो गयी....बार, बार उस विधाताके आगे नतमस्तक होते हुए मेरी आँखों से अविरल धारा बहती रही....

अबतो कितना कुछ करना था...वंदन को अपने माता पिताको ख़बर देनी थी...निम्मीको अपने माता पिताको..मुझे अपने नैहर और ससुरालमे.........

दोपेहरके भोजनके लिए मैंने निम्मीको अपने हाथोंसे तैयार किया...उसनेभी बिल्कुल ना नुकुर नही की...जानती थी,कि उसकी ना नुकुर सभीका मूड ख़राब कर सकती है......माँ-बाबूजीका दोनोने आशीर्वाद लिया और तब बाहर गए....मैंने उन दोनों वृद्धों को अपने आँसू पोछते हुए देखा...लड़कियाँ तो खुशीसे फूले नही समाँ रही थी....मेरे बच्चों के साथ मिल उनके तो ना जाने कितने प्रोग्राम तय होने लग गए थे.....मै चोर निगाहोंसे वंदन को देख लेती...उसकी निगाहें, निम्मीका पीछा करती रहतीं...और जब कभी उसे महसूस होता कि पकडा गया है, तो हलकेसे मुस्काके मुझे एक स्नेहभरी निगाहसे देखता....

अब एकही दुआ मेरे मनसे निकल रही थी..."हे इश्वर....अबके सब ठीकठाक करना....बस मेरे इन फरिश्तों जैसे दोस्तों के जीवन मे खुशियाँ ही खुशियाँ भर देना...माँ-बाबूजीको उनकी बुढापे की लाठी दे देना...बड़ी पुण्यात्माएं हैं.....शत शत बार तेरे दरपे नतमस्तक हूँ....अपना नज़रे करम रखना...."

एक जोश भर गया था हम सभीमे.....फेहरिस्त बनानी थी...ज़रूरी चीजोंकी..सादगीसे विधी करनी थी....फिरभी ज़रूरी नही था, कि , किसी मनहूसियत के बादल मँडराते रहें...मौक़ा तो खुशीका था...दो अत्यन्त नेक और अच्छे लोगोंको दोबारा अपना जीवनपथ सजनेका मौक़ा मिल रहा था....

मेरा नेक, पाक,साफ़ इरादा ईश्वरने मान लिया था...मंज़ूर कर लिया था...मुझे तो रहके रहके विश्वास नही हो रहा था...निम्मी और वंदन बाहर जानेको निकले तो मैंने अपनी आँखोंके काजलका टीका दोनोंके कानके पीछे लगा दिया....भगवान् इन्हें हर बद नज़रसे बचाना...
क्रमश:

1 टिप्पणी:


  1. रिज़वाना जी, क्या यह बेहतर न होगा कि इन कड़ियों को कुछ छोटा रखा करें !
    नियमित पाठक की बात और है.. नवागँतुक किंवा इतना धैर्य न रख पाये ।
    मज़ाहिया अदब की बात दीगर है.. पर संज़ीदा किस्साबयानी में , निकल भागने को उतावला हो उठना नामुमकिन नहीं है ।
    आरामदेह बिस्तरे पर लेट कर पढ़ने में यही तो फ़र्क़ है ! आपका तज़ुर्बा ज़ियादा है, फिर भी..

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